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६८ जैन योग
अपना अनुभव अपने लिए
दर्द किसको होता है, आत्मा को या शरीर को ? आत्मा को कोई दर्द नहीं होता । हमने अपनी सारी चेतना को दर्द के साथ जोड़ रखा है और इस मान्यता के आधार पर जोड़ रखा है कि यह दर्द मुझे हो रहा है । तब आपको यह सारा दर्द हो रहा है । यदि भेद- ज्ञान स्पष्ट हो जाए, अन्यत्व का चिंतन स्पष्ट हो जाए तो हम स्वास्थ्य के एक ऐसे वातायन में जाकर बैठेंगे जहां से द्रष्टा की भांति देख सकेंगे कि यह रहा दर्द और यह रहा मैं । यह रहा पथिक और यह रहा मैं । जैसे वातायन पर बैठा आदमी रास्ते चलते आदमी I को देखता है, वैसे ही वह कष्ट को अलग देखेगा । अन्यत्व भावना के विकसित होने पर यह स्थिति बनती है । मैं कोई तत्त्व - चिंतन की बात नहीं कर रहा हूं | यदि यह तत्त्व-चिंतन की बात होती तो मेरी बात का प्रतिपक्ष भी होता, मेरे तर्क का प्रतितर्क भी होता, मेरी उक्ति की प्रत्युक्ति भी होती । किंतु यह सारी साधना की बात है । हर व्यक्ति को अनुभव करने की बात कह रहा हूं। मेरा अनुभव आपके काम नहीं आ सकता और आपका अनुभव मेरे काम नहीं आ सकता । आपका तर्क मेरे काम आ सकता है और मेरा तर्क आपके काम सकता है । ऐसा हुआ भी है | दर्शनशास्त्र और तर्कशास्त्र के हजारों ग्रंथ रचे गए । किसी एक दर्शनशास्त्री ने अच्छा तर्क प्रस्तुत किया तो आने वाले विद्वानों ने उस तर्क को अपना लिया और उसे दोहराते गए । एक का तर्क दूसरे के काम आ जाता है, एक की उक्ति दूसरे के काम आ जाती है | किंतु अनुभव किसी के काम नहीं आता । प्रत्येक का अनुभव अपना-अपना होता है । यह सारी अनुभव की बात है । साधक भेदज्ञान को प्राप्त करे, विवेकचेतना का जागरण करे, आत्मा की भूमिका पर आकर आत्मा और शरीर के अन्यत्व अनुप्रेक्षा की बात करे, कायोत्सर्ग की साधना करे । उस भूमिका पर पहुंचकर वह यह अनुभव करे कि ऐसा हो सकता है या नहीं । यदि तर्क की भूमिका पर इसे परखने का प्रयत्न होगा, शल्य चिकित्सा होगी तो तर्क ही हाथ लगेगा, अनुभव प्राप्त नहीं होगा । इतना हो सकता है कि आप मेरी कही हुई बातों का खंडन कर सकेंगे। ऐसा लगेगा कि मेरी कही हुई बातें अस्वाभाविक हैं | मैं आपको सावधान किए देता हूं कि आप इन बातों को
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