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साधना की भूमिकाएं६३
जब अभय होता है तब शांति प्रस्फुटित होती है । अशांति के पीछे बहुत बड़ा कारण होता है भय का । भय से जितना तनाव पैदा होता है उतना तनाव और किसी वस्तु से नहीं होता ।
परिग्रह और भय
मनुष्य में परिग्रह की मूर्च्छा होती है। किंतु इस परिग्रह की मूर्च्छा के साथ भय जुड़ा हुआ होता है । आदमी इसीलिए परिग्रह का संचयन करता है कि वह बीमार होने पर काम आ सके । वह सोचता है - परिग्रह का संचय नहीं करूंगा तो बुढ़ापे में क्या गति होगी ? इस भय से वह परिग्रह का संचय करता है । 'मैं बड़ा आदमी नहीं बनूंगा, धनवान नहीं बनूंगा और दूसरे बन जाएंगे तो मेरी क्या स्थिति होगी' - इस विचारधारा में भय ही काम करता है । अर्जन के साथ भय जुड़ा हुआ है और सरंक्षण के साथ भी भय जुड़ा हुआ है ।
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शरीर भी परिग्रह है । संस्कार भी परिग्रह है। धन भी परिग्रह है । परिग्रह के साथ भय जुड़ा हुआ है । वह कभी नहीं छूटता ।
एक धनाड्य सेठ था । उसे अपनी कन्या का विवाह करना था । वह विषकन्या थी । कोई भी आदमी उससे विवाह करता तो वह दूसरे ही दिन भाग जाता । आदमी धन के लालच से विवाह तो कर लेता किंतु वह कन्या से संपर्क नहीं कर पाता, क्योंकि उस कन्या का स्पर्श अग्नि जैसा था और हर कोई उस स्पर्श को सहन नहीं कर पाता था । सेठ ने सोचा- अच्छा आदमी इस कन्या से विवाह नहीं करेगा। संभव है भिखारी धन के लालच से विवाह कर ले । एक दिन उसने अपने कर्मचारियों से कहा - "किसी भिखारी को ले आओ, कन्या का विवाह करना है ।" भिखारी लाया गया। उसे स्नान कराकर अच्छे कपड़े पहनाये, अलंकार धारण करवाये । सब कुछ किया । धन का प्रलोभन दिया । उसके हाथ में जो भीख मांगने का खप्पर था, उसे छीनकर कर्मचारी बाहर फेंकने लगे। यह देखकर भिखारी चिल्ला उठा । उसने कहा- 'मेरा खप्पर जा रहा है। मैं इस खप्पर के साथ इतने वर्षों तक जीया, आज यह मेरे से बिछुड़ रहा है ।" भिखारी के साथ खप्पर का जो संस्कार जुड़ा हुआ था, वह एक साथ कैसे छूटता ? उसके सामने धन का अंबार
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