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६२ - जैन योग की शरण ली | शस्त्र-निर्माण होने लगा | पहले पत्थर के शस्त्र बनाए तो वे भी डरकर ही बनाए गए थे । फिर लोहे के शस्त्र बनाए तो वे भी भय की ही प्रतिक्रिया-स्वरूप थे । फिर अणु-शस्त्रों का निर्माण हुआ। उनके पीछे भी भय ही काम कर रहा था । भय के बिना शस्त्र-निर्माण व्यर्थ है । भय के बिना शस्त्र-निर्माण की बात आदमी को सूझती ही नहीं । कुत्ते आदि पशुओं का डर लगा तो आदमी ने लाठी का सहारा लिया । चोरों का भय लगा तो उसने बंदूक और तलवार का सहारा लिया । इसी प्रकार बड़े भय के लिए बड़े शस्त्रों का सहारा लेना पड़ा । एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिलेगा कि डर न हो और आदमी शस्त्रों का भार ढोता फिरे ।
सैनिक जीवन से जूझंता है, मौत के सामने खड़ा रहता है, फिर भी अभय नहीं है, अभयाभास है क्योंकि वह शस्त्रों की छत्रछाया में रहता है | आभास होता है कि वह अभय है, पर वास्तव में वह अभय नहीं है, भीरु है । इसे और स्पष्ट समझें । जो व्यक्ति लड़ने के लिए जाता है, वह दूसरे को शत्रु मानता है । शत्रु बनाने का मतलब ही है भय का बीज वपन । जिसने शत्रु बनाया, उसके मन में भय घुस गया | मन में भय था इसीलिए उसने दूसरे को शत्रु माना, दूसरे को शत्रु बनाया। दूसरे को शत्रु बनाया इसीलिए उसके मन का भय बढ़ गया, भय स्थिर हो गया । जो दूसरे को शत्रु मानता है वह कभी अभय नहीं हो सकता । जो अपनी सुरक्षा के लिए शस्त्रों का अंबार लगाता है वह कभी अभय नहीं हो सकता । जिस मरने की भावना के पीछे आवेश और उत्तेजना है, वह कभी शांत नहीं हो सकता । जो शांत होता है वह कभी लड़ाई नहीं कर सकता । जो अशांत होकर अभय का प्रदर्शन करता है वह यथार्थ में अभय नहीं हो सकता । यह उत्तेजनाजनित अभय अभय का भ्रम पैदा करता है, किंतु वास्तव में वह अभय नहीं है । कायोत्सर्ग की पहली निष्पत्ति ___अभय वही व्यक्ति हो सकता है जो शरीर की आसक्ति को तोड़ चुका है, छोड़ चुका है। जिसका कायाभिमान छूट गया, उसे दुनिया में कोई भयभीत नहीं कर सकता । कायोत्सर्ग की पहली निष्पत्ति है-अभय का घटित होना ।
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