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साधना की भूमिकाएं - ६१ जैसे-जैसे अंतर्दृष्टि विकसित होती है कायोत्सर्ग की भूमिका दृढ़तर होती जाती है । अंतर्दृष्टि और कायोत्सर्ग-दोनों में अन्योन्याश्रित संबंध है । दोनों में परस्पर गहरा संबंध है । अध्यात्म-साधना का यह पहला चरण है, पहली भूमिका है । अंतर्दृष्टि का जागना और कायोत्सर्ग का सधना आध्यात्मिक विकास की पहली भूमिका है । आत्मा और शरीर का भेद-ज्ञान होना, विवेक का पूर्ण जागरण होना-यह पहला चरण है । इसमें मूढ़ता समाप्त हो जाती है । जो मोहकता शरीर के माध्यम से चारों ओर फैल रही थी, वह इस भूमिका में सिमटने लग जाती है । संयम के लिए और पूरे अध्यात्म-विकास के लिए एक उर्वर भूमि तैयार हो जाती है । जब कायोत्सर्ग सधता है तब उस उर्वर भूमि में संयम का बीज बोया जा सकता है । भेद ज्ञान स्पष्ट होने पर संयम का बीज बोया जा सकता है । जब विवेक-चेतना जाग जाती है तब अप्रमाद का बीज बोया जा सकता है । यह अंतिम विकास नहीं है । यह विकास की पहली भूमिका मात्र है। किंतु इसके हुए बिना अध्यात्म का विकास हो ही नहीं सकता | इसके होने पर ही अध्यात्म का शेष विकास होता है, इसलिए इस भूमिका का बहुत बड़ा महत्त्व है । जब कायोत्सर्ग सधता है तब विकास की नई-नई दिशाएं उद्घाटित होने लग जाती हैं । अध्यात्म के नए आयाम खुलने लग जाते हैं । उद्घाटित होने वाला पहला आयाम है अभय का । जब तक देहाभिमान से छुटकारा नहीं मिलता तब तक हजार प्रयत्न करने पर भी भय समाप्त नहीं होता है। योद्धा निर्भीक नहीं होता
आप सोचते होंगे कि युद्ध के मोर्चे पर लड़ने वाले योद्धा का न तो अंतर्दर्शन स्पष्ट हुआ है और न कायोत्सर्ग सधा है, किंतु वह कितना निर्भीक होता है कि मौत के मुंह पर जाकर खड़ा हो जाता है | यह भ्रांति है। किसने कहा है कि योद्धा निर्भीक होता है ? इस भ्रांति को हम तोड़ें । अभय वह होता है जो शस्त्र का सहारा नहीं लता | जो हमेशा शस्त्रों की सुरक्षा में चलता है, जिसके चारों ओर शस्त्रों का सुरक्षा कवच है, वह योद्धा अभय कैसे हो सकता है ? शस्त्रों का निर्माण भय की प्रतिक्रिया से होता है । अभय व्यक्ति ने कभी शस्त्रों का निर्माण नहीं किया । आदमी को डर लगा, उसने शस्त्रों
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