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६०जैन योग
मेरा है' और 'मैं शरीर का हूं' - यह पकड़ बनी रहती है तब तक मानसिक ग्रंथियां कैसे खुलेंगी ? नहीं खुल सकेंगी । मन में सदा तनाव पैदा होते ही रहते हैं । शरीर पर एक मक्खी बैठते ही तनाव पैदा हो जाता है । जैसे ही मक्खी बैठती है वैसे ही मस्तिष्क के पास संदेश पहुंच जाता है । मस्तिष्क का निर्देश होता है और मांसपेशियां सक्रिय हो जाती हैं और मक्खी को उड़ाने का कार्य शुरू जाता है । संदेश मस्तिष्क तक पहुंचना, मांसपेशियों का सक्रिय होना और मक्खी का उड़ाया जाना - यह सब कार्य क्षणभर में घटित हो जाता है । शरीर बाहर का कुछ भी सहन नहीं कर सकता । यह शरीर का अभिमान जब तक है तब तक तनाव समाप्त नहीं हो सकता । कायोत्सर्ग क्या है ?
एक प्रश्न आता है कि शरीर को सर्वथा छोड़ देना- यह कैसे संभव हो सकता है ? कायगुप्ति, काय संयम, काय-संवर, काय प्रतिसंलीनता और कायोत्सर्ग ये सब काया से संबधित हैं । इन सबका काया से संबंध है किंतु कायोत्सर्ग इन सबसे अलग पड़ जाता है ।
काया को बचाना काय गुप्ति है । काया से असंयम की प्रवृत्ति न करना कायसंयम है । काया को सुरक्षित रखना काया की प्रतिसंलीनता है । किंतु कायोत्सर्ग कुछ और वस्तु है । उसका संबंध संयम या संवर या गुप्ति से नहीं है । उसका संबंध है जो वस्तु चैतन्य के साथ अभिन्नता स्थापित किए हुए है, उस अभिन्नता के संबंध को तोड़ देना, संबंध का विच्छेद कर देना । चिरकाल से चले आ रहे एकत्व को तोड़ देना, अभिन्नता को समाप्त कर देना । चैतन्य के साथ, आत्मा के साथ काया की जो एकता बनी हुई है, अभेद बना हुआ है, अद्वैत स्थापित हो चुका है, उस अद्वैत को, अभेद को और एकता को तोड़ देना कायोत्सर्ग है | यह है काया का विसर्जन, जीते-जी शरीर को छोड़ देना । जब तक कायोत्सर्ग की स्थिति उपलब्ध नहीं होती तब तक आध्यात्मिक विकास का कोई भी चरण नहीं उठता, आगे नहीं बढ़ता | आध्यात्मिक विकास का पहला चरण तब उठता है जब कायोत्सर्ग सध जाता है । अंतर्दृष्टि खुलती है तब कायोत्सर्ग सधता है । जैसे-जैसे कायोत्सर्ग सधता है वैसे-वैसे अंतर्दृष्टि का अधिक विकास होता जाता है ।
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