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________________ साधना की भूमिकाएं ५७ ने कहा- शरीर रथ है और आत्मा रथिक है । शरीर घोड़ा है और आत्मा घुड़सवार है । क्या समुद्र में तैरने वाला नाविक कभी अपनी नौका की उपेक्षा कर सकता है ? ऐसा वह कभी नहीं कर सकता । समुद्र की तेज धारा में बह जा रहा है, अथाह जल है और पार होने का एकमात्र साधन है नौका । क्या ऐसा मूर्ख व्यक्ति मिलेगा जो समुद्र में उतरकर भी नौका की उपेक्षा करे ? कभी नहीं कर पाएगा । वह नौका की पूरी रक्षा करेगा । उसे कुछ भी आंच नहीं आने देगा | नौका से चिपकना भूल है एक प्रश्न यह है कि जो व्यक्ति शरीर और आत्मा को एक मानता है, अभिन्न मानता है, वह शरीर को बहुत संभालकर रखता है, उसका सरंक्षण करता है और जो व्यक्ति शरीर और आत्मा को भिन्न मानता है, अलग-अलग मानता है, वह भी शरीर को संभालकर रखता है । फिर दोनों में अन्तर क्या है ? दोनों की धारणाओं में, स्थापनाओं में क्या फर्क पड़ा ? दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है । इसको हम समझें । नाविक नौका को संभालकर रखता है किंतु उससे चिपककर नहीं रहता । वह स्पष्ट जानता है कि जब तक तट प्राप्त नहीं हो जाता, तब तक उसके लिए नौका नौका है, वह ग्रहण करने योग्य है । जब तट प्राप्त हो जाता है तब नौका उसके लिए व्यर्थ है, तब नौका की कोई सार्थकता नहीं रह जाती । किंतु जो शरीर और आत्मा को भिन्न नहीं मानता, वह तट आने पर भी नौका से चिपटा रहता है । वह यह सोचता है कि नौका ने मुझे पार लगाया है, अब इसे मैं क्यों छोडूं ? जो नौका है वह मैं हूं और जो मैं हूं वह नौका है । मैं नौका को अपने से अलग नहीं कर सकता । वह नौका से चिपट जाता है । यह चिपट जाने वाली बात उस मनुष्य में उत्पन्न होती है जो शरीर और आत्मा को एक मानता है । नौका को साधन मात्र मानने की मति उस मनुष्य में जन्म लेती है जो नौका को केवल साधन मानता है और प्रयोजन सिद्ध होने पर उसे छोड़ देता है । यह व्यवहार का लोप नहीं है । पदार्थ साधन है, अभिन्न नहीं यह सच है कि उन लोगों ने बहुत बड़ी समस्याएं पैदा की हैं जो पदार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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