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५८ जैन योग
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से चिपके रहे । सभी युद्धों का कारण भी यही चिपकाव रहा है । शरीर भी एक पदार्थ है जो शरीर से चिपका रहता है, वह सबके साथ चिपका रहता है । जो शरीर के साथ चिपका हुआ नहीं वह किसी के साथ भी चिपका हुआ नहीं होता । जिस व्यक्ति का शरीर के साथ चिपकाव नहीं रहा, जो शरीर को जीवन-यापन का साधन मात्र मानकर चलता है, उस व्यक्ति ने दुनिया में कभी कोई अनर्थ पैदा नहीं किया । उस व्यक्ति ने द्वंद्व या संघर्ष कभी उत्पन्न नहीं किया । क्योंकि वह मानकर चलता है कि पदार्थ मात्र साधन है, एक उपयोगिता है, चिपकाव की वस्तु नहीं है । जीवन धारा में कितना बड़ा अंतर आता है, आप स्वयं अनुभव करें । एक आदमी पदार्थ को साधन मानता है और एक उसको अभिन्न मानता है । अभिन्न मानने में जो स्फुलिंग उछलते हैं, वे साधन मानने से नहीं उछलते । बहुत बार कहा जाता है कि धन को साधन मानो । उसका संग्रह मत करो । किंतु यह हो नहीं सकता । जब आदमी शरीर को साधन नहीं मानता तो फिर वह धन को साधन कैसे मानेगा ? वह शब्दों में भले ही दोहरा दे, पर यथार्थ में वह उसे स्वीकार नहीं करेगा । स्वीकार तब होता है जब ममत्व छूट जाता है, मार्ग दीख जाता है, कोई संदेह नहीं रहता है, कोई भय नहीं रहता । उस स्थिति में ही यह ज्ञान विकसित हो सकता है, ज्ञाता और द्रष्टा का भाव विकसित हो सकता है । उस स्थिति में बहुत सारी आंधियां और व्याधियां टूटने लगती हैं तथा उपाधियां भी एक-एक कर खंडित होती जाती हैं । जब आदमी ज्ञाता और द्रष्टा हो गया तो फिर कौन-सी उपाधि बच गई ? विश्व में एक ही निरुपाधिक वस्तु है, वह है - ज्ञाताभाव और द्रष्टाभाव । शेष सब सोपाधिक हैं, सबके साथ विश्लेषण जुड़े हुए हैं ।
एक प्रश्न पूछा गया - 'अत्थि उवाही पासगस्स' -क्या द्रष्टा के कोई उपाधि है ? उत्तर मिला- ' णत्थि उवाही पासगस्स'-द्रष्टा के कोई उपाधि नहीं होती है । जो द्रष्टा है उसके क्या उपाधि हो सकती है ? कोई उपाधि नहीं होती । इस प्रकार निरुपाधिक अवस्था का सूत्रपात अध्यात्म विकास की पहली भूमिका में हो जाता है । अंतर्दृष्टि आते ही यह सब कुछ घटित हो जाता है ।
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