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५६ - जैन योग मैं शरीर से भिन्न हूं, तब मूर्छा पर इतना तीव्र प्रहार होता है कि मोह का किला ढह जाता है, क्योंकि मोह का उद्गम-स्थल है शरीर । आदमी शरीर को ही सब कुछ मानकर कार्य करता है । जब यह मोह टूट जाता है, यह भ्रांति टूट जाती है, अनादिकालीन भ्रम की दीवार खंड-खंड हो जाती है तब यह स्पष्ट बोध होता है कि मैं शरीर नहीं हूं | इस बोध के साथ-साथ सारी विचारधाराएं बदल जाती हैं । 'यह शरीर मेरा नहीं है', 'मैं शरीर नहीं हूं'-अहंकार की गाढ़ ग्रंथि खुल जाती है | ‘यह शरीर मेरा नहीं है'-ममकार की गाढ़ ग्रंथि खुल जाती है । उसे रास्ता मिल जाता है। रास्ता उसी को मिलता है जिसकी ममकार की ग्रंथि खुल जाती है ।
ममत्व की ग्रंथि का आदि-बिन्दु है शरीर | जब यह गांठ खुल जाती है तब मार्ग स्पष्ट दीखने लग जाता है । वह जान लेता है कि उसे क्या करना है ? कहां जाना है ? जब अंहकार और ममकार-दोनों की गांठें खल गयीं 'मैं शरीर नहीं हूं', 'शरीर मेरा नहीं है'-तब नये चैतन्य का उदय होता है । उस सूर्य का उदय हो गया जो कभी अरुणाचल पर आयां नहीं था, जो कभी पूर्वांचल में नहीं आया था । कभी उगा नहीं था । जब सूर्य का उदय होता है तब जीवन की सारी दिशा बदल जाती है | आप सोच सकते हैं कि क्या इस भूमिका में जीने वाला कभी व्यवहार की भूमिका में जी सकेगा? मैं मानता हूं कि वह अच्छी तरह से जी सकेगा । किंतु यह संभव कैसे होगा ? जिसने यह मान लिया कि मैं शरीर नहीं हूं, शरीर मेरा नहीं है क्या वह शरीर के प्रति उदासीन नहीं हो जाएगा ? क्या वह शरीर के प्रति विरक्त नहीं हो जाएगा? क्या यह शरीर के प्रति उपेक्षा नहीं है ? क्या ऐसा व्यक्ति जीवन को चला पाएगा? जो व्यक्ति शरीर के प्रति उपेक्षा बरतेगा, क्या वह परिवार के प्रति अनुरक्त रह पाएगा? क्या वह देश के प्रति अनुरक्त रह पाएगा? वह जीवन दायित्वों और कर्तव्यों को कैसे निभा पाएगा? ये प्रश्न सहज हैं किंतु इन प्रश्नों में कोई व्यावहारिक कठिनाई नहीं है । जिसने यह स्पष्ट रूप से जान लिया कि शरीर भिन्न है और मैं भिन्न हूं, उसने शरीर के साथ संबंध की एक योजना कर ली । उस संबंध को अनेक रूपकों में अभिव्यक्ति दी गई है । महावीर ने कहा-शरीर नौका है और आत्मा नाविक है। उपनिषद्कारों
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