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साधना की भूमिकाएं - ५५ तर्क के द्वारा यह प्रमाणित नहीं हो सकता । अनुभव से ऐसा जाना जा सकता है । जानो और देखो, अनुभव करो | श्वास को जानो । यह भी बहुत बड़ी क्रिया है । जो आते-जाते श्वास को जान रहे हैं, वे कल्पना नहीं कर रहे हैं, स्मृति नहीं कर रहे है, केवल जान रहे हैं, देख रहे हैं, अनुभव कर रहे हैं । केवल शुद्ध आत्मा का उपयोग कर रहे हैं, शुद्ध चेतना का उपयोग कर रहे हैं। श्वास का मूल्य
जो नहीं जानते वे यह सोच सकते हैं कि श्वास जैसी छोटी वस्तु को देखने-जानने से क्या ? इतनी छोटी बात को हर कोई जान लेता है, देख लेता है । इसमें विशेषता है ही क्या ? आप सोचें । आप देखते हैं तो सिनेमा को देखते हैं,चलचित्र को देखते हैं और जानते हैं तो दूसरों को जानते हैं । किंतु अपने श्वास को जानने-देखने की बात आपको उपलब्ध नहीं है । शुद्ध चैतन्य का उपयोग है केवल जानना-देखना । इसमें कोई राग नहीं, कोई द्वेष नहीं । श्वास को जानने-देखने का अर्थ है राग-द्वेष से मुक्त क्षण में जीना, वीतरागता का जीवन जीना । स्फोट
जिस साधक में स्फोट होता है वह आत्मा को उपलब्ध हो जाता है और उस भूमिका पर पहुंचकर वह कहता है कि 'मैं शरीर नहीं हूं ।' 'मैं पुद्गल नहीं हूं ।' 'मैं मूर्त नहीं हूं।' यह अध्यात्म-विकास की पहली भूमिका है । ममकार का आदि-बिन्दु
जब यह अवस्था घटित होती है तब चिंतन की धारा बदल जाती है। चिंतन की जो मूढ़ अवस्था थी, उसमें परिवर्तन आ जाता है । जब साधक कहता है-'मैं शरीर नहीं हूं' तब इससे चिंतन का एक स्रोत निकलता है जिसे हम 'अन्यत्व अनुप्रेक्षा' कहते हैं । आज तक यह मान रखा था जो 'शरीर है वह मैं हूं' और 'जो मैं हूं वह शरीर है ।' अब अन्यत्व अनुप्रेक्षा का जागरण हुआ तो यह स्पष्ट बोध हो गया कि शरीर अन्य है, मैं अन्य हूं। यह अन्यत्व अनुप्रेक्षा प्रस्फुटित होती है । जब यह बात स्पष्ट समझ में आ जाती है कि
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