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________________ ५४ - जैन योग अपने आप में वह पा लेता है । दूसरों को देने में तो वे ही खतरे फिर आ जाते हैं | दूसरों को समाहित करने में भाषा का माध्यम चाहिए, बुद्धि का माध्यम चाहिए, मनन और चिंतन का माध्यम चाहिए । हम अपने अनुभव को भाषा के माध्यम से प्रकट न कर सकें, यह भिन्न प्रश्न है । किंतु स्वयं का समाधान इससे अनुबंधित नहीं है | अध्यात्म से स्वयं का समाधान हो जाता है, कोई संदेह नहीं रहता । यह सब होता है साधना के क्षेत्र में, अध्यात्म के क्षेत्र में । साधना के द्वारा ऐसा विस्फोट होता है कि मूर्छा की दीवारें टूट जाती हैं और यह स्पष्ट अनुभव होने लगता है कि मैं वह हूं जो ज्ञाता है, द्रष्टा है । आत्मा का एकमात्र लक्षण हो सकता है ज्ञाता और द्रष्टा । आज इतने विकास के बावजूद ऐसा कोई यंत्र नहीं बना जो ज्ञाता और द्रष्टा हो । यंत्र में स्मृति की शक्ति आरोपित की जा सकती है । आप कोई बात भूल गए । कम्प्यूटर आपको याद दिला देगा कि आप कहां भूल कर रहे हैं । आप गणित में गलती करते हैं, कम्प्यूटर आपको सावधान कर देगा । किंतु ज्ञाता और द्रष्टा बनने की क्षमता उसमें नहीं है । कोई भी ऐसा पुद्गल नहीं है जो ज्ञाता-द्रष्टा है । आत्मा का लक्षण है-जानना, देखना । जो अकर्मा है वह जानता है, देखता है । यह नहीं कि जो अकर्मा है वह सोचता है, मनन करता है। अकर्मा नहीं सोचता । आत्मा को सोचने की जरूरत नहीं होती । सोचने की जरूरत इस मस्तिष्क को होती है । आत्मा को याद करने की जरूरत नहीं होती । आत्मा को कल्पना करने की जरूरत नहीं होती । कल्पना, स्मृति और चिंतन-इन सबसे परे जो है वह है ज्ञाता और द्रष्टा, जो जानता है, जो देखता है । वह न कल्पना करता है, न याद करता है और न सोचता है । वहां कोई माध्यम नहीं है। स्मृति में माध्यम की जरूरत होती है। कल्पना और चिंतन में माध्यम की जरूरत होती है। ज्ञाता और द्रष्टा को किसी चिंतन की जरूरत नहीं होती । वह अपनी ज्ञान शक्ति के बल पर ही जान लेता है । बिना किसी माध्यम के, बिना किसी सहारे के वह चैतन्य के द्वारा सब कुछ जान लेता है, देख लेता है । इस चेतना लक्षण का कोई प्रतिद्वंद्वी तर्क आज तक उपलब्ध नहीं हुआ जिससे यह प्रमाणित कर सकें कि यह अचेतन है, फिर भी जानता है, देखता है | आज तक ऐसा प्रमाणित नहीं हो सका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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