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साधना की भूमिकाएं - ५१ अंतर्दृष्टि अध्यात्म की पहली भूमिका है। अंतर्दृष्टि का जागरण अध्यात्म-विकास की पहली अवस्था है । जैसे ही अंतर्दृष्टि जागती है मूढ़ता समाप्त हो जाती है । इससे पूर्व मूढ़ता का एकछत्र साम्राज्य रहता है । अंधकार ही अंधकार ! सर्वत्रा सघन अंधकार ! बहिदर्शन ही बहिदर्शन ! पौद्गलिकता ही पौद्गलिकता ! मूर्छा की तरंगें ही तरंगें! मूर्छा की उन तरंगों के सामने कोई प्रतिरोधक शक्ति नहीं होती । उस मूढ़ अवस्था के सामने कोई रुकावट नहीं होती, कोई अवरोध नहीं होता । जैसे ही अंतर्दृष्टि खुलती है, मूर्छा के समक्ष प्रतिरोध की शक्ति खड़ी हो जाती है और मूढ़ता का एकछत्र साम्राज्य टूट जाता है। अन्तर्दृष्टि का अर्थ
अन्तर्दृष्टि का अर्थ है-अंतर् का दर्शन । शरीर के बाहर का दर्शन या शरीर के भीतर का दर्शन अंतदर्शन नहीं है | चाहे हम शरीर के बाहर देखें, चाहे शरीर के भीतर देखें, यह अंतर्दर्शन नहीं है । अंतर्दर्शन कुछ और होता है । वह यह है कि पौद्गलिकता से परे कुछ है, इसका भान हो जाना । जब अंतर्दृष्टि का जागरण होता है तब मनुष्य को यह भान होता है कि मैं शरीर नहीं हूं । शरीर मूर्त है, मैं अमूर्त हूं । अचेतन पुद्गल और मूर्त के प्रतिपक्ष में एक नए तथ्य का उदय होता है, नए रहस्य का उद्घाटन होता है । चेतन, अ-पुद्गल और अमूर्त का भान होता है | सब कुछ पौद्गलिक
दर्शन और तर्क के क्षेत्र में चेतन और अचेतन के विषय में अनगिन विचारणाएं स्फुरित हुई हैं । उनका लेखा-जोखा करना भी संभव नहीं है । इनकी स्थापना के लिए तर्क का बहुत बड़ा जाल बिछा हुआ है । कुछ दार्शनिकों ने चेतन की सत्ता की स्थापना की तो कुछ दार्शनिकों ने उसका निरसन किया, खंडन किया । चेतन की सत्ता की स्थापना एक बहुत जटिल समस्या है, क्योंकि हमारे जीवन का सारा परिसर, सारा परिवेश और सारा वातावरण पुदगल का है। हम जिन आंखों से देखते हैं वे आंखें पौद्गलिक हैं । हम जिस मन से सोचते हैं वह मन पौद्गलिक है । हम जिस भाषा में बोलते हैं, वह भाषा
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