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साधना की भूमिकाएं
एकाग्रता की और-और भी दिशाएं हैं। बीमारी जब होती है तब उसे मिटाने के लिए व्यक्ति आकुल-व्याकुल हो उठता है, बेचैन हो जाता है । इस चिंतन में न जाने वह क्या - क्या कर लेता है । वह अकरणीय कार्य भी कर ता है। बीमारी को मिटाने के लिए, वेदना को दूर करने के लिए वह सबकुछ करने के लिए तत्पर रहता है ।
एकाग्रता : काम्य, अकाम्य
एकाग्रता की एक दिशा है - आसक्ति की तीव्रता । कोई भी मनोज्ञ वस्तु सामने आती है और मनुष्य उसकी प्राप्ति के लिए संकल्प करता है । वह उस वस्तु को पाने के लिए अपनी संपूर्ण संकल्प - शक्ति का प्रयोग करता है, उसे उसी में खपा देता है । तपस्या या अन्य माध्यम से अर्जित शक्ति को पदार्थ प्राप्ति में खपा देना निदान कहलाता है । आज होने वाले युद्ध इस निदान के उदाहरण हैं । व्यक्ति संकल्प करता है कि मैं विश्व का सर्वश्रेष्ठ पुरुष सिद्ध हो सकूं, इसकी प्राप्ति के लिए वह अर्जित को खपा देता है ।
इन सारी दिशाओं में मनुष्य की एकाग्रता होती है, ध्यान होता है । आप इस भ्रांति को निकाल दें कि एकाग्रता का कोई मूल्य नहीं है । उसका अपना मूल्य है । एकाग्रता किस दिशा में प्रवाहित है, किस दिशा में स्थिर है, इसी आधार पर उसकी मूल्यवत्ता आंकी जाती है । यदि एकाग्रता पदार्थगामी है तो वह काम्य नहीं है, इष्ट नहीं है, प्रयोजनीय नहीं है । एकाग्रता वही काम्य, इष्ट और प्रयोजनीय है, जो हमारे चैतन्य जागरण में निमित्त बनती है । चैतन्य के जागरण के लिए होने वाली एकाग्रता अध्यात्म के साधक के लिए बहुत मूलवान हैं। पदार्थोन्मुख एकाग्रता का अध्यात्म की दृष्टि से कोई मूल्य नहीं हैं । इससे मानसिक बीमारियां पैदा होती हैं, मानसिक विकृतियां पैदा होती हैं । वर्तमान युग की मानसिक विकृतियों का, मानसिक बीमारियों का, मानसिक पागलपन का, मानसिक असन्तुलन का निदान केवल मूर्च्छा की तरंगों में ही खोजा जा सकता है। हमारा प्रयत्न यह हो कि मूर्च्छा टूटे और जागृति बढ़े ।
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