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४८ जैन योग
लिए गए है या जो सुख के निमित्त स्थापित हैं उन स्थापित सुख के निमित्तों में ही सुख की खोज करता है । उनसे परे, उन निमित्तों के बिना ही अपने भीतर कोई सुख है या सुखद संवेदन उत्पन्न हो सकते हैं, इस बात की कल्पना और संभावना भी करना उसके लिए कठिन है । यह उस अपवित्र आभामंडल . का ही परिणाम है |
मूढ़ व्यक्ति का ध्यान : आर्त्त और रौद्र
यह हम न मानें कि मूढ़ व्यक्ति में एकाग्रता नहीं होती । एकाग्रता उसमें भी होती है । उसमें ध्यान भी होता है। किंतु उसका सारा ध्यान, सारी एकाग्रता भिन्न दिशागामी होती है । वह इष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए इतना एकाग्र हो जाता है कि मन की सारी शक्ति केन्द्रित हो जाती है, वस्तु को प्राप्त करने के लिए । संयोगवश वस्तु मिल गई तो फिर एकाग्रता की दिशा बदल जाती है । अब उसका ध्यान, उसकी एकाग्रता इस ओर लगेगी कि प्राप्त वस्तु छूट न जाए । इस प्रकार उसमें पदार्थ के नित्यत्व की भावना जागृत हो जाती है । वह मानेगा कि जो संयोग है वह निश्चित रूप से चलता रहे । सचाई यह है कि जो मिला है वह निश्चित ही चला जायेगा । किंतु उस व्यक्ति की मूढ़ता कभी इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करने देगी कि जो संयोग है उसका वियोग भी होगा । वह मूढ़ व्यक्ति यही स्वीकार कर चलता है कि संयोग स्थायी है, कभी वियोग नहीं होगा । वह संयोग के स्थायित्व के लिए ही प्रयत्न करेगा । उसकी समूची एकाग्रता इष्ट वस्तु की प्राप्ति और इष्ट वस्तु का वियोग न हो, इसी में लगी रहेगी। उसकी ध्यान-धारा इसी ओर प्रवाहित होगी ।
उसमें ध्यान की दूसरी धारा भी बनती है । जो वस्तु इष्ट नहीं है, वह मिल न जाए, इस ओर उसका चिंतन चलेगा । यदि संयोगवश वह अनिष्ट वस्तु प्राप्त हो जाती है तो उससे बिछुड़ने के लिए उसका सारा चिंतन चलता रहता है । उस समय सारी स्मृतियों का मुंह एक ही दिशा में लग जाता है । क्या यह ध्यान नहीं है ? यह पूरी एकाग्रता है । इतनी एकाग्रता शायद अध्यात्म के साधक को भी करने में कठिनाई होती है । मूढ़ व्यक्ति में यह एकाग्रता सहजतया होती है | श्वास पर जितनी एकाग्रता हमारी नहीं सधती, शरीरप्रेक्षा में जितनी एकाग्रता नहीं सधती, उतनी एकाग्रता प्रिय की प्राप्ति और अप्रिय की अप्राप्ति करने में सध जाती है ।
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