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साधना की भूमिकाएं - ४७ मूढ़ अवस्था का तीसरा लक्षण है-अतीन्द्रिय सत्यों के प्रति अनास्था । जो मनुष्य मूढ़ होता है, उसकी अतीन्द्रिय सत्यों के प्रति कोई रुचि नहीं होती। वह मानता ही नहीं कि कुछ अतीन्द्रिय होता है । उसका चिंतन यही कहता है कि जो सामने है वह सत्य है, जो उपलब्ध है वही सार्थक है, जो प्राप्त है वही सब-कुछ है । इससे आगे कुछ भी नहीं है । उसका सारा प्रयत्न केवल उपलब्ध के आस-पास ही चक्कर लगाता रहता है । कोल्हू का बैल जैसे कोल्हू के आस-पास घूमता है, वैसे ही मूढ़ व्यक्ति उपलब्ध के आस-पास घूमता है। वह इससे हटकर कुछ देखने का प्रयत्न ही नहीं करता । अतीन्द्रिय सत्य है। मूढ़ इस ओर एक पैर भी नहीं रखता | उसमें यह जिज्ञासा ही पैदा नहीं होती है कि जो दृष्ट है उससे परे भी कुछ होना चाहिए । यह मूढ़ता का तीसरा लक्षण है। मूढ़ता : अपवित्र आभामंडल
मूढ़ मनुष्य अशुभ लेश्याओं का जीवन जीता है । उसकी लेश्याएं अशुभ होती हैं । लेश्या अर्थात् आभामंडल । उसका आभामंडल पवित्र नहीं होता, वह विकृत हो जाता है । हर प्राणी के आस-पास दो, चार, पांच या सात फुट का आभामंडल होता है । लेश्या अच्छी भी होती है और बुरी भी होती है | आभा-मंडल निर्मल भी होता है और मलिन भी होता है, पवित्र भी होता है और विकृत भी होता है । मूढ़ता के कारण जो आभामंडल बना है वह इतना विकृत बनता है कि बुरे विचार के लिए पूरी भूमि उपलब्ध हो जाती है, कोई कमी नहीं रहती । उस समय कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या-ये लेश्याएं ही अधिक-से-अधिक कार्यरत रहती हैं । तेजोलेश्या आदि शुभ लेश्याएं बहुत ही क्षीण रहती हैं । अधिकांशतः मलिन लेश्याओं का ही आभामंडल आस-पास में बना रहता है। उससे विकृत विचार ही उत्पन्न होते रहते हैं । जब तक तेजोलेश्या नहीं होती, तब तक मनुष्य बाह्य निमित्तों से होने वाले स्पंदनों और संवेदनों को ही सुख मानता रहता है | शरीर के भीतर सुखद स्पंदन, सुखद संवेदन है, उन तक उसकी गति ही नहीं होती। वह तो सोचता है कि खाऊँगा तो सुख मिलेगा । अच्छे कपड़े पहनूंगा तो सुख मिलेगा । भोग करूँगा तो सुख मिलेगा । जितने-जितने सुख के साधन मान
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