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४६ - जैन योग हाथ नहीं आता । दुःख को सुख और सुख को दुःख मान लिया जाता है । हम अपने उत्तरदायित्व को दूसरों पर डाल देते हैं और दूसरों के उत्तरदायित्व को अपने पर ओढ़ लेते हैं । सब-कुछ विपरीत ही विपरीत । यह है मूढ़ता का पहला लक्षण ।
मूढ़ता का दूसरा लक्षण है-अनुबंध । अनंत अनुबंध अर्थात् नए-नए दुःखों का निर्माण । 'कडेण मूढ़ो पुणो-पुणो तं करेइ'-मूढ़ व्यक्ति कभी कोई आचरण कर लेता है । वह उसमें इतना मूढ़ हो जाता है, मोहकता उस पर इतनी छा जाती है कि फिर वह उसे बार-बार दोहराता ही रहता है । जैसे कभी कुछ मिल गया और उसका भोग कर लिया । वस्तु चली गयी, किंतु संस्कार छोड़ गयी ? आज भोजन में अमुक वस्तु खाई । कल भोजन करने बैठा और उस वस्तु की स्मृति हो आईं । मन दुःखी हो गया । जो वस्तु है वह सुख नहीं दे रही है किंतु जो नहीं है वह दुःख दे रही है । यह है स्मृति का अनुबंध, स्मृति का दुःख । स्मृति सताती है, दुःख देती है, पीड़ित करती है |
मूढ़ मनुष्य को कल्पना भी सताती है | मूढ़ मनुष्य को स्मृति भी सताती है । मूढ़ आदमी में कितने काल्पनिक भय होते है । उसमें कितने काल्पनिक दुःख होते हैं । वह असंख्य कल्पनाएं करता चला जाता है और उनके अनुपात में दुःखी होता चला जाता है । भविष्य की जितनी आशंका मूढ़ मनुष्य में होती है, उतनी आंशका जागृत व्यक्ति में नहीं होती । मूढ़ व्यक्ति हमेशा ही इस उधेड़बुन में रहता है कि कल क्या होगा ? परसों क्या होगा ? आगे क्या होगा ? संदेह कभी मिटता ही नहीं । स्मृतियां भी सताती रहती हैं | सुख दुःख का हेतु बन जाता है । कभी सुख होता है, वह अपने पीछे इतना दुःख छोड़ जाता है कि नए-नए दुःख उससे उत्पन्न होते रहते हैं । कोई प्रिय बना । उसने मान लिया कि मुझे प्रिय मिल गया । प्रिय बिछुड़ गया । अब अपार दुःख हो गया । सुख तो शायद थोड़े समय के लिए रहा होगा, किंतु दुःख इतना लंबा हो गया कि बार-बार दुःख की ही स्मृति होती चली गई । यह है राग और द्वेष का अंतहीन अनुबंध । अनंत श्रृंखला बन जाती है । एक के बाद एक दुःख पैदा होता रहता है और उसका अंत नहीं होता । मूढ़ अवस्था का दूसरा लक्षण है-अनंत अनुबंध ।
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