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साधना की भूमिकाएं
४१ होता है । वह है-ममकार अर्थात् मेरापन । मेरा शरीर, मेरा परिवार, मेरी पत्नी, मेरा पुत्र, मेरा पिता, मेरा धन, मेरा मकान, मेरा पदार्थ । वह सारे पदार्थजगत् को 'मेरे' में समेट लेता है, उसे भिन्न नहीं रखता । किसी को वह 'मेरेपन' से भिन्न नहीं मानता । इस 'मेरे' की परिधि में सब कुछ समा जाता है। इतनी बड़ी परिधि है । केन्द्र बहुत छोटा है ।
सामान्यतः वृत्त का जो व्यास होता है उससे तिगुनी होती है परिधि । किन्तु ममकार की परिधि तिगुनी तो क्या, तीन करोड़ गुना अधिक है। संभवतः यहां गणित भी गलत हो जाता है । कहा जाता है कि गाणितिक सत्य कभी गलत वहीं होता । वह सदा सत्य होता है । उसमें कभी अंतर नहीं आता । किन्तु इस ममकार की परिधि में गणित का सत्य भी असत्य हो जाएगा । गणितज्ञ भी यह गणित नहीं कर पाते । ममकार जो केन्द्र में बैठा है उसकी परिधि इतनी बड़ी है कि कोई उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता । सबकुछ उसमें समा जाता है ।
जब ममकार और अहंकार- ये दो बीमारियां उत्पन्न हो जाती हैं, तब इन का विस्तार होता जाता है । इन बीमारियों के कारण विकृति की एक बड़ी धारा निकल पडती है । उसमें से छोटी-छोटी असख्य धाराएं निकलती हैं उनकी गणना असंभव हो जाती है |
अहंभाव, हीनभाव - दोनों बीमारियां
मानसिक विकृतियों की कुछ धाराओं में एक है बड़प्पन की भावना का प्रदर्शन । प्रत्येक मनुष्य अपने आपको बड़ा दिखाना चाहता है । उसमें उसे बड़ा संतोष मिलता है । वह सोचता है - 'मैं बड़ा हूं और सब छोटे हैं। मुझे लोग बड़ा मानें और दूसरों को छोटा मानें । मुझे लोग बड़ा अनुभव करें और दूसरों को छोटा अनुभव करें ।' यह बड़प्पन के प्रदर्शन की भावना, अपने आप को बड़ा दिखाने की भावना, मानसिक विकृति है । सचाई कुछ भी नहीं है, केवल विकृति है । जिसका मन पागल होता है उसमें यह विकृति पैदा होती है। दुनिया में ऐसे व्यक्ति विरल है जिनमें यह पागलपन न हो। अधिकांश लोग पागल होते हैं । उन्हें सोलह आना पागल घोषित तो इसलिए नहीं किया जा सकता कि वे थोड़ा-बहुत समझदारी का काम भी करते हैं । फिर भी वे पागल हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है ।
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