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४० जैन योग
कि दोनों अलग-अलग हैं । उसका सिद्धांत है कि ऊर्जा घनत्व में, द्रव में बदल सकता है और द्रव ऊर्जा में बदल सकता है । इसी प्रकार मूर्च्छा की सघन ऊर्मियां मूढ़ता में बदल जाती हैं और मूढ़ता फिर उन मूर्च्छा की उर्मियां में बदल जाती है । यह चक्र चलता रहता है । जब मूढ़ता की अवस्था निर्मित हो जाती है, उस समय की स्थिति का हम थोड़ा-सा पर्यवेक्षण करें कि उस मूढ़ता की स्थिति में मनुष्य की क्या दशा बनती है ।
मूढ़ता से उपाधि
मूढ़ता की दशा में सबसे पहले चिंतन की धारा बदल जाती है । उस अवस्था में चिंतन की धारा का पहला सूत्र होता है कि 'मैं शरीर हूं' | मूढ़ व्यक्ति शरीर और अपने अस्तित्व को भिन्न नहीं मानता है । वह व्यक्ति शरीर और आत्मा को, शरीर और चैतन्य को एक मानता है। जब वह चैतन्य और शरीर को एक मानता है, उस स्थिति में अहंभाव का विकास होता है । अहंकार का अर्थ है - मैं अमुक हूं, मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं, मैं बड़ा हूं, मैं छोटा हूं, मैं समृद्ध हूं, मैं गरीब हूं, मैं विद्वान हूं, मैं मूर्ख हूं- इस प्रकार का मनोभाव बनना । जितनी उपाधियां दुनिया में हो सकती हैं, वे सारी उपाधियां मनुष्य अपने पीछे लगाए घूम रहा है। 'कम्मुणा उवाही जायई' - कर्म से उपाधि होती है । सारी उपाधियां कर्म-जनित होती हैं ।
एक ओर है आधि, दूसरी ओर है व्याधि और बीच में स्थित है उपाधि | मनुष्य आधि और व्याधि के बीच में जी रहा है, इसलिए उसके पीछे उपाधि लगती है । जब कोई आधि नहीं होती, जब कोई व्याधि नहीं होती तब कोई उपाधि भी नहीं हो सकती । आधि और व्याधि की देन है उपाधि । आदमी उपाधियों का भार ढोता है और अपने को वह मानता है जो कि वह नहीं है । वह जो है, उसका अनुभव नहीं करता । वह जो नहीं है, उसका अनुभव करता है । आत्मा न सुखी है, न दुःखी है, न समृद्ध है, न गरीब है, न छोटा है, न बड़ा है । आत्मा यह सब - कुछ भी नहीं है । फिर भी मनुष्य अपने आपको सब कुछ मानता चला जाता है ।
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ममकार
शरीर और आत्मा को एक मानने के कारण एक दूसरा दोष उत्पन्न
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