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३२ - जैन योग नहीं मिटता । इसका ताप ही सब आगों के जलने का प्रेरक तत्त्व है। यह चार प्रकार की आग-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय-हमारे भीतर निरंतर प्रज्ज्वलित रहती है । ये चार आस्रव की अग्नियां अपने आप अपने ईंधन को खींचती हैं और जलती रहती हैं । पुराने ईंधन चुक जाते हैं, नये ईंधन आते रहते हैं । यह आग कभी बुझ नहीं पाती ।
एक चीज और है जिसे हम आग तो नहीं कहेंगे किंत आग के साथ होने वाली वायु अवश्य कहेंगे । वायु के बिना आग नहीं जलती । यह एक अकाट्य नियम है-यत्र अग्निस्तत्र वायु:-जहां आग है वहां वायु है । वायु के बिना आग नहीं जलती । जैसे जीने के लिए प्राणवायु की आवश्यकता होती है वैसे ही जलने के लिए भी प्राणवायु (ऑक्सीजन) की आवश्यकता होती है । अग्नियां चार हैं-मिथ्यात्व की अग्नि, अव्रत की अग्नि, प्रमाद की
अग्नि और कषाय की अग्नि । कर्म-पुद्गल इन अग्नियों के लिए ईंधन हैं, किंतु पवन है-योग, प्रवृत्ति । योग वायु का काम करता है | योग का अर्थ है-प्रवृत्ति, चंचलता विक्षेप । जितनी तीव्र हमारी चंचलता होगी, प्रवृत्ति होगी, विक्षेप होगा, उतनी ही तीव्र वायु चलेगी और उतनी ही तीव्रता से पुद्गल
आएंगे और आग को जलने में सहायता करते रहेंगे । वायु का काम करता है-योग आस्रव । योग का अर्थ है-प्रवृत्ति । समूची प्रवृत्ति का मतलब है वायु । वायु स्वयं नहीं जलती । जलाना इसका काम नहीं है । जलाने का काम है उन चार आस्रवों का मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद और कषाय का | किंतु जलाने का सबसे बड़ा प्रेरक तत्त्व है योग आस्रव, प्रवृत्ति, मन की प्रवृत्ति, वचन की प्रवृत्ति और शरीर की प्रवृत्ति । योग तीन हैं-मनयोग, वचनयोग और काययोग । योग जलती हुई आग को और अधिक प्रज्ज्वलित कर देता है । यह आग में पूला डालने जैसा है।
इस प्रकार कर्म के दो रूप हमारे सामने हैं-एक है चित्तवृत्ति और दूसरा है कर्म का पुद्गल समूह | इन दोनों को कर्म कहा गया है । एक की संज्ञा है-'भावकर्म, और दूसरे की संज्ञा है-'द्रव्यकर्म' । कर्म कर्म को बांधता है - कर्म-ग्रहण और कर्म-परिणमन का चक्र निरंतर चलता रहता है । कर्म से कर्म । इस संदर्भ में कुछ प्रश्न उपस्थित होते हैं । जीव है चेतन और अमूर्त ।
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