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________________ 1 साधना की पृष्ठभूमि ३१ हमारी चित्तवृत्ति को उभारता है, उसे सहारा देता है । जलती आग में ईंधन का काम करने वाला पुद्गल समूह भी कर्म है, जैसे कि कुछ दार्शनिकों ने कर्म को केवल चित्त - संस्कार के रूप में स्वीकार किया है । कर्म को केवल संस्कार माना है । जैन दर्शन ने उसे केवल संस्कार नहीं माना, कर्म-पुद्गल माना है। कर्म भी पदार्थ है, पौद्गलिक है, द्रव्य है । यह हमारी चेतना की जलती हुई आग में ईंधन का काम करता है और अपना सहारा देता है । कर्म के दो अर्थ कर्म के दो अर्थ हो गए एक है चित्त की वृत्ति, चेतना का परिणमन और दूसरा है आस्रव । आस्रव अर्थात् निरंतर बहने वाली धारा । एक भी क्षण ऐसा नहीं आता कि हमारी राग-द्वेष की आग बुझ जाए। एक आदमी शांत बैठा है । ऐसा नहीं लगता कि उसमें कोई राग-द्वेष है । पूर्ण रूप से शांत है । आप उसके भीतर झांककर देखें । अपने आपको भी शांत महसूस करने वाले आप अपनी चेतना को भीतर ले जाएं और गहराई में देखें। आपको लगेगा कि जो बाहर से शांत प्रतीत होता है उसके भीतर भी राग-द्वेष की आग भभक रही है । वह आग निरंतर जलने वाली आग है । किसी में मिथ्या दृष्टिकोण की आग जल रही है । वह व्यक्ति असत्य के प्रति अभिनिवेश रखता है । वह हर बात को आग्रह से स्वीकार करता है। वह एकांगी दृष्टिकोण से देखता है और प्रत्येक सत्य की काट-छांट के लिए प्रस्तुत रहता है । रागद्वेष की तीव्र आग उसमें जल रही है। कुछ व्यक्तियों में मिथ्या दृष्टिकोण की आग इतनी तीव्र नहीं होती, किंतु आकांक्षा की आग तीव्र होती है। चाह और चाह । कहीं उसका अंत नहीं आता । इतनी आकांक्षा, इतना असंयम, इतनी आशंसा, हर बात की चाह से संकुल । यह है अव्रत आस्रव । अव्रत की आग निरंतर जलने वाली आग है । कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनमें न मिथ्या अभिनिवेश होता है और न आकांक्षा होती है । दोनों की आग बुझी हुई होती है । किन्तु उनमें भी प्रमाद की आग जलती रहती है । प्रमाद का अर्थ है - अपनी विस्मृति, अपने स्वरूप की विस्मृति, अपने आप को भूल जाना, अपने अस्तित्व को भूल जाना । यह भी एक आग है जो जलती रहती है । प्रमाद आस्रव व्यक्ति में निरंतर रहता है । व्यक्ति में कषाय की आग जलती ही रहती है। इसका ताप कभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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