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३० जैन योग
प्रतिक्रिया नहीं होती । फिर करने के लिए प्रेरणा नहीं जागती । किंतु जब एक बार कर लिया जाता है तब दूसरी बार भी करने की भावना जागती है । फिर स्मृति उभरती है और फिर करने की बात आती है । यह दोहराने की बात, पुनरावृत्ति का सिद्धांत ही कर्म सिद्धांत है । कर्म का सिद्धांत मनोवैज्ञानिक सिद्धांत है । एक बार जो प्रवृत्ति तुमने कर ली, अर्थात कर्म का बंधन अपने ऊपर डाल दिया । यह ऐसा बंधन है कि फिर उस प्रवृत्ति से मुक्त होना तुम्हारे वश की बात नहीं रही, सहज बात नहीं रही । बहुत ही जटिल बात हो गई । न करने तक ठीक था कि यह नहीं किया । बात समाप्त हो गई कि यह नहीं किया । कुछ नहीं हुआ । किन्तु एक बार भी यदि किया तो फिर न करना सरल नहीं रहा । फिर उसकी अधीनता स्वीकार कर ली । और सताने वाली बात पैदा हो गई। यह प्रतिक्रिया का सिद्धांत ही कर्म का सिद्धांत है । एक बार जो रास्ता पड़ गया, डांडी बन गई, फिर उसे मिटा पाना सरल नहीं होता । आदमी जाने-अनजाने उस मार्ग से चलने लग जाता है ।
कर्म का मतलब है - एक संस्कार का निर्माण, एक चित्तवृत्ति का निर्माण, एक ऐसे रास्ते का निर्माण जिस रास्ते से पानी अपने आप चला जाए। यदि एक बार भी पानी के जाने का रास्ता बना डाला तो फिर जैसे ही पानी आया, वह उस रास्ते से बह जाएगा । हमने एक ऐसी ढालू ज़मीन बना ली कि पानी अपने आप सरक जाएगा, बह जाएगा । हमने अपने मस्तिष्क में एक ऐसा अंकन पैदा कर लिया कि बह अंकन पुनः उस प्रवृत्ति को करने के लिए हमें बाधित करता है । वह हमें तब तक उस प्रवृत्ति को दोहराने के लिए बाधित करता रहेगा जब तक कि वह मूलतः नष्ट न हो जाए, नष्ट न कर दिया जाए । यह संस्कार का निर्माण कर्म है, यह चित्तवृत्ति का निर्माण कर्म है, यह प्रतिक्रिया पैदा करने वाला सिद्धांत कर्म है ।
कर्म : संस्कार भी, पुद्गल भी
कर्म दो स्थानों पर घटित होता है। एक है चेतना की वह अवस्था अर्थात् वह चित्तवृत्ति जिसका हमने किन्हीं आचरणों के द्वारा, प्रवृत्तियों के द्वारा निर्माण किया है | वह चित्तवृत्ति ही कर्म है । एक है वह पुद्गल समूह जो
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