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साधना की पृष्ठभूमि २५ का केवल इतना ही काम है- जानना और देखना | उसके अतिरिक्त उसका कोई काम नहीं है । इसके अतिरिक्त आत्मा का कोई स्वरूप या स्वभाव नहीं है । उसका समूचा स्वभाव इसी में गर्भित है कि जानो और देखो । कर्त्ता और कर्म
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दो प्रकार की क्रियाएं है - होना और करना । ' अहमस्मि' - मैं हूं - यह होना भी एक क्रिया है । 'तुम हो' - यह होना भी एक क्रिया है । 'हैं' - यह भी एक क्रिया है । 'अहं करोमि - मैं करता हूं - यह करना भी एक क्रिया है । होना और करना- इनमें इतना सा अंतर है कि जहां 'हूं' है वहां केवल अस्तित्व का सूचक होता है, कोरी स्वाभविक क्रिया है । कोई बाहरी संयोग की क्रिया नहीं है | और जहां 'अहं करोमि ' - मैं करता हूं-वहां दो बातें आ जाती हैं । 'अहं कार्य करोमि’-मैं काम करता हूं। यहां एक कर्त्ता - Subject है और एक कर्म - Object है । कर्त्ता और कर्म - ये दो हैं । 'मैं काम करता हूं' - यहां दो बन गये । जहां केवल होना है, होने में दो नहीं हैं । 'हूं' वहां कोई द्वैत नहीं है । किन्तु जहां 'मैं काम करता हूं' वहां मैं अलग हो गया और काम अलग हो गया । कर्त्ता अलग हो गया, कर्म अलग हो गया । यह स्वाभविक क्रिया नहीं रही, वैभाविक क्रिया हो गई, अस्वाभाविक क्रिया हो गई । आत्मा जानता है, देखता है - यह स्वाभविक क्रिया है, क्योंकि यह आत्मा का अपना स्वभाव है, अपनी क्रिया है । यह किसी के संयोग से होने वाली क्रिया नहीं है । यह आरोपित क्रिया नहीं है, किसी के माध्यम मे होने वाली क्रिया नहीं है । स्वाभाविक : वैभाविक
मैं जानता हूं, देखता हूं यह मेरा अपना स्वभाव है । किंतु मैं बोलता हूं, यह क्रिया अवश्य है, पर स्वाभाविक नहीं । यह स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं है, सांयोगिक प्रवृत्ति है । न आत्मा बोलती है और न यह शरीर बोलता है । आत्मा और शरीर का जब योग होता है, तब 'प्राणशक्ति' पैदा होती है । हमारे शरीर में ऊर्जा है, तैजस या विद्युत् है । उस ऊर्जा शक्ति का संचालन होता है और मैं बोलता हूं । यह बोलने की क्रिया, सोचने की क्रिया, खाने
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