________________
२६ जैन योग
की क्रिया, श्वास लेने की क्रिया - ये सारी क्रियाएं अस्वाभविक हैं । मन का कर्म, वचन का कर्म और शरीर का कर्म - ये सारे अस्वाभाविक हैं, वैभाविक क्रियाएं हैं ।
कर्म है कार्य-कारण की खोज
जिन लोगों ने कर्म की खोज की, उन्होंने एक नियम को खोजा । जैसे वैज्ञानिक प्रकृति के नियम की खोज करता है, वैसे ही एक द्रष्टा ने, बुद्धि के स्तर पर नहीं किंतु अनुभव के स्तर पर एक नियम खोज निकाला । वह नियम यह है-जहां वैभाविक क्रिया होगी वहां आत्मा का बंधन होगा । यह कार्य-कारण का नियम है । कोई भी कार्य कारण के बिना नहीं होता । हमारा बंधन भी कारण के बिना नहीं हो सकता । यह एक नियम की खोज है, नियंता की खोज नहीं है । नियंता नियामक होता है, नियमन करने वाला होता है । नियम स्वाभाविक होता है, बनाया नहीं जाता । यह शाश्वत व्यवस्था है, बनायी हुई व्यवस्था नहीं है । इसीलिए भगवान् महावीर ने कहा- जो नियम है वह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। इसे किसी ने बनाया नहीं है । वह नियम यह है - जहां आत्मा जानने-देखने की क्रिया से हटकर और कोई भी क्रिया करता है, वहां बंधन होता है । यह है बंधन का नियम । आत्मा बंधता है । प्रवृत्ति है बंधन
कर्म के दो अर्थ हैं - प्रवृत्ति और बंधन | बंधन और प्रवृत्ति दोनों एक हो जाते हैं । हमारी कोई भी वैभाविक प्रवृत्ति ऐसी नहीं है जहां कि बंधन न हो । जहां बंधन है वहां प्रवृत्ति है और जहां प्रवृत्ति है वहां बंधन है । एक को देखकर दूसरे को जाना जा सकता है । धुएं को देखकर आग को जाना जा सकता है । यह एक निश्चित व्याप्ति है कि जहां धुआं है वहां अग्नि है । अग्नि के बिना धुआं हो भी नहीं सकता । यह तर्कशास्त्र की निश्चित व्याप्ति है- 'यत्र यत्र धूमः तत्र तत्र वह्निः ।' जहां धुआं है वहां अग्नि हैं । व्याप्ति एक ही है - जहां धुआं है वहां अग्नि है, यह तो नियम है किंतु जहां अग्नि है वहां धुआं होगा - यह नियम नहीं बनता । धुआं हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता । किंतु यह दोहरी व्याप्ति कि जहां प्रवृत्ति है वहां
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org