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२४ 0 जैन याग
आत्मा और मुक्तात्मा-दोनों के बीच कर्म का एक सूत्र है जो समूचा विस्तार करता है। दो प्रकार की आत्माएं हैं-बद्ध और मुक्त । जो कर्मयुक्त है वह बद्ध आत्मा है और जो कर्ममुक्त है वह मुक्तात्मा है | बद्ध और मुक्त आत्मा के बीच की जो सारी परिक्रमा है वह है अध्यात्म । अध्यात्म को समझने के लिए आत्मा को समझना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है कर्म को समझना । जितना कर्म को समझना जरूरी है, उतना ही जरूरी है आत्मा को समझना | दोनों को समझे बिना अध्यात्म को नहीं समझा जा सकता। इसलिए आत्मा को समझना जितना प्राथमिक और आवश्यक है उतना ही कर्म को समझना भी प्राथमिक और आवश्यक है । एक के बिना दूसरे को नहीं समझा जा सकता । इसलिए हमें कर्म के विषय में मीमांसा करनी है । अर्थ-क्रिया : द्रव्य का लक्षण
आत्मा एक द्रव्य है । जो द्रव्य होता है वह क्रियाकारी होता है | द्रव्य का लक्षण है-अर्थ क्रियाकारित्वम् । जो अर्थ-क्रिया करता है अर्थात् कोईन-कोई क्रिया करता है उसका ही अस्तित्व होता है । जिसमें कोई क्रिया नहीं होती उसका कोई अस्तित्व नहीं होता । दो शब्द हैं-अस्तित्व और अनस्तित्व है। जिसकी सत्ता है वह अस्तित्व है, जिसकी सत्ता नहीं है वह अनस्तित्व । अस्तित्व और अनस्तित्व में यह भेदरेखा है कि जिसमें क्रिया होती है वह है अस्तित्व और जिसमें क्रिया नहीं होती वह है अनस्तित्व । तर्कशास्त्र में अनस्तित्व के अनेक उदाहरण दिये जाते हैं-आकशकुसुम, वन्ध्यापुत्र, शशशृंग, तुरंग-शृंग आदि- आदि । शशश्रृंग-खरगोश के सींग का कोई अस्तित्व नहीं होता, क्योंकि उसकी कोई क्रिया नहीं मिलती । वन्ध्यापुत्र का अस्तित्व इसीलिए नहीं है कि उसकी कोई क्रिया उपलब्ध नहीं होती । आकाशकुसुम की कोई क्रिया प्राप्त नहीं है, इसलिए वह अस्तित्वशून्य है । जिसकी क्रिया नहीं है उसका अस्तित्व नहीं है । जिसकी क्रिया है उसका अस्तित्व भी है।
प्रत्येक द्रव्य क्रिया करता है । आत्मा एक द्रव्य है । उसकी अपनी क्रिया है । उसका अपना स्वरूप है । उसका अपना स्वभाव है । आत्मा का स्वभाव, आत्मा का स्वरूप, आत्मा की सहज किया है जानना और देखना । चेतना
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