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२२ - जैन योग चार आस्रवों में प्रवृत्त होता है तब सुख का हेतु बन जाता है । इसके द्वारा कर्म-परमाणुओं का आस्रवण (आगमन) होता है, वह आस्रव है । कर्म-परमाणु जीव के प्रदेशों के साथ चिपके रहते हैं, वह बंध है । कर्मपरमाणु बंधन के बाद अपनी स्थिति के अनुपात में सत्ताकाल में रहते हैं । फिर विपाक को प्राप्त कर, उदय में आकर, निर्जीण हो जाते हैं । कर्म के उदयकल में प्राणी को दुःख या सुख का अनुभव होता है । अध्यात्म की भाषा में आस्रव दुःख या सुख का हेतु है । कर्म के उदय से होने वाली अनुभुति दुःख या सुख है। आस्रव का विरोध होने पर दुःख और सुख-दोनों के द्वार बंद हो जाते हैं। उस स्थिति में आत्मिक सुख का अनुभव होता है । जब तक आस्रव की क्रिया और चंचलता रहती है तब तक मनुष्य दुःख और पौद्गलिक सुख की अनुभूति के चक्र में जीता है । उसे सहज सुख का अनुभव नहीं होता । प्रत्येक जीव में अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अंनतशक्ति होती है । किंतु आस्रव के कारण यह अनंत चतुष्टयी प्रगट नहीं हो पाती । इसके अस्तित्वकाल में ज्ञान-दर्शन आवृत, सुख विकृत और शक्ति सुप्त रहती है । जीव में जो अशुद्धि है वह स्वाभाविक नहीं है । वह सारी-की सारी आस्रव जनित है | इसके आधार पर ही जीव के दो विभाग बनते हैं- बद्ध और मुक्त । आस्रवयुक्त जीव बद्ध और आस्रव-रहित जीव मुक्त होता है । जब तक आस्रव-जनित वृत्तियां और कर्म रहते हैं तब तक आत्मा के मौलिक स्वरूप का साक्षात्कार नहीं होता | चित्त की निर्मलता, एकाग्रता, तपस्या, प्रतिपक्षभावना या ध्यान-साधना के द्वारा आस्रव की शक्ति को क्षीण करने पर ही आत्मा के स्वरूप की अनुभूति हो सकती है । संक्षोप में जैन दर्शन का सार यह है-आस्रव दुःख का हेतु है और संवर सहज सुख का ।
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