SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २. ३. ४. ( अस्थिर - तात्कालिक) तीव्रतर क्रोध - मिट्टी की रेखा के समान | तीव्र क्रोध - धूलि की रेखा के समान । मंद क्रोध - जल की रेखा के समान । ५. तीव्रतम मान - पत्थर के खंभे के समान । तीव्रतर मान - हाड़ के खंभे के समान । तीव्र मान-काष्ठ के खंभे के समान । मंद मान - लता के खंभे के समान । (दृढ़तम) ६. (दृढ़तर) (दृढ़) ८. (लचीला) ९. (वक्रतम) (वक्रतर) (वक्र) (स्वल्प वक्र) तीव्रतम माया - बांस की जड़ के समान | १०. तीव्रतर माया - मेंढे के सींग के समान । ११. तीव्र माया - चलते बैल की मूत्रधारा के समान १२. मंद माया- छिलते बांस की छाल के समान । १३. तीव्रतम लोभ - कृमि रेशम के समान | १४. तीव्रतर लोभ - कीचड़ के समान | १५. तीव्र लोभ - खंजन के समान । (गाढ़ रंग) १६. मंद लोभ - हल्दी के समान । (तत्काल उड़ने वाला रंग) इन कषायों को उत्तेजित करने वाले तत्त्वों को 'नो- कषय' कहा (गाढ़तम रंग ) ( गाढ़तर रंग) ७. जाता है । साधना की पृष्ठभूमि २१ (स्थिरतर) (स्थिर) यहां 'नो' का अर्थ है - ईषद्, थोड़ा | 'नो - कषाय' नौ हैं - हास्य, रति, अरति, भय, शोक, दुगुंछा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद । मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद इन तीनों आस्रवों के समाप्त हो जाने पर भी कषाय आस्रव से कर्म परमाणुओं का आगमन होता रहता है । कषाय के समाप्त हो जाने पर केवल योग से पुण्य कर्म का बंध होता रहता है । योग मनुष्य के पास प्रवृत्ति के तीन साधन हैं- शरीर, वचन और मन | ये तीनों योग कहलाते हैं। योग का अर्थ है - प्रवृत्ति, चंचलता या सक्रियता । दुःख-सुख के हेतु चार आस्रवों से चैतन्य मूच्छित होता है। इसलिए वे दुःख के हेतु बनते हैं। योग अपने आप में दुःख और सूख का हेतु नहीं है । यह मिथ्यात्व आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy