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२० - जैन योग है । जीवन की आकांक्षा और मृत्यु का भय भी मन को विचलित करता रहता है । सामाजिक जीवन में पारस्परिक टकरावों, संघर्षों और छीनाझपटी का कारण यह अविरति की मनोदशा ही है । प्रमाद
प्रमाद का अर्थ है-विस्मृति । इससे आत्मा या चैतन्य की विस्मृति होती है । इस अवस्था में मनुष्य का मन इंद्रिय-विषयों के प्रति आकर्षित हो जाता है; शांत बने हुए क्रोध, मान, माया और लोभ फिर उभर आते हैं; जागरूकता समाप्त हो जाती है; करणीय और अकरणीय का बोध धुंधला हो जाता है |
__ प्रमाद का दूसरा अर्थ है-अनुत्साह । प्रमत्त अवस्था में संयम और क्षमा आदि धर्मों के प्रति मन में अनुत्साह आ जाता है; सत्य के आचरण में शिथिलता आ जाती है | इससे आध्यात्मिक अकर्मण्यता और अलसता की स्थिति बन जाती है | वासना, भोजन आदि की चर्चा में जो आकर्षण होता है वह आध्यात्मिक विकास की चर्चा में नहीं होता। कषाय
राग और द्वेष- ये तो मूल दोष हैं । राग माया और लोभ की प्रवृत्ति को तथा द्वेष क्रोध और अभिमान की प्रवृत्ति को जन्म देता है । ये चारों-क्रोध, मान, माया और लोभ चित्त को रंगीन बना देते हैं, इसलिए इन्हें कषाय कहा जाता है । मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद-ये कषाय के उदय से ही निष्पन्न होते हैं । तीव्रतम कषाय' के उदयकाल में सम्यग्दृष्टि उपलब्ध नहीं होती। तीव्रतर कषाय के उदयकाल में आंशिक विरति भी नहीं होती । तीव्र कषाय के उदयकाल में पूर्ण विरति नहीं होती । मन्द कषाय के उदयकाल में वीतरागता उपलब्ध नहीं होती । चारों कषायों के तीव्रता और मन्दता के आधार पर सोलह प्रकार बनते हैं
१. तीव्रतम क्रोध-पत्थर की रेखा के समान । (स्थिरतम)
१. कषाय चार हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ । तीव्रतम कषाय को अनंतानुबंधी,
तीव्रतर कषाय को अप्रत्याख्यानी, तीव्र कषाय को प्रत्याख्यानी और मंद कषाय को संज्वलन कहा जाता है।
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