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साधना की पृष्ठभूमि
होता है। बाहरी पुद्गलों को आकर्षित करने वाले घटक के रूप में काययोग आस्रव बनता है। सभी कर्म-परमाणु काययोग के द्वारा ही आकर्षित होते हैं । जैसे तालाब में नाले से जल आता है वैसे ही काययोग के द्वारा कर्म के परमाणु भीतर आकर जीव- प्रदेशों के साथ संबंध स्थापित करते हैं । जैसे गीले कपड़े पर वायु द्वारा लाए हुए रजकरण चिपकते है, वैसे ही राग-द्वेष से गीले बने हुए जीव पर काययोग द्वारा लाए हुए कर्म - परमाणु चिपकते हैं । जैसे तपा हुआ लोहपिंड जल- कणों को आत्मसात् कर लेता है वैसे ही कषाय से उत्तप्त जीवकर्म - परमाणुओं को आत्मसात् कर लेता है ।
आस्रव के पांच प्रकार हैं- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और
योग |
मिथ्यात्व
ज्ञान आवृत होने पर मनुष्य जान नहीं पाता । नहीं जानना अज्ञान है । दृष्टि मूढ़ होने पर मनुष्य जानता हुआ भी सम्यक् नहीं जानता, विपरीत जानता है । यह मिथ्यात्व है | इस अवस्था में इंद्रिय विषयों के प्रति तीव्रतम आसक्ति रहती है, क्रोध, मान, माया, और लोभ प्रबलतम होते हैं, मानसिक ग्रंथियां बनती रहती हैं । वे जीवन-भर खुलती नहीं । व्यवहार में क्रूरता अधिक रहती है । मिथ्यात्वी मनुष्य दुःखद विषयों को सुखद मानता है और अशाश्वत विषयों को शाश्वत मानकर चलता है । उसमें असत्य का आग्रह होता है । वह पदार्थ को ही सर्वस्व मानता है। धन के प्रति उसमें तीव्रतम मूर्च्छा होती है। नैतिकता या प्रामाणिकता में उसे कोई विश्वास नहीं होता ।
अविरति
मनुष्य में एक आकांक्षा की वृत्ति होती है । उसके कारण वह पदार्थ में अनुरक्त होता है । उसे वह प्राप्त करना और भोगना चाहता है । उस वृत्ति के अस्तित्व में वह पदार्थ से विरत नहीं होता । इसलिए उस वृत्ति का नाम अविरति है | इस अवस्था में मनुष्य की दृष्टि पदार्थ के प्रति आकृष्ट होती रहती है । पदार्थ और धन के द्वारा होने वाले अनिष्ट परिणामों को जान लेने पर भी वह इन्हें छोड़ नहीं सकता । मूर्च्छा के कारण उसे भय सताता रहता
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