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________________ क्रियावाद : आस्रव जीव अनन्त हैं । प्रत्येक जीव का अस्तित्व स्वतंत्र है । वह न किसी के द्वारा निर्मित है और न संचालित । वह अनिर्मित है और अपने ही परिणामों से संचालित है । उसमें दो प्रकार के पयार्य होते हैं- स्वाभाविक और नैमित्तिक । स्वाभाविक पर्याय निमित्त-निरपेक्ष होते हैं। उससे जीव का अस्तित्व बना रहता । नैमित्तिक पर्याय निमित्तों के आधार पर होते हैं। उससे जीव नानारूपों में बदलता रहता है, । निमित्त दो प्रकार के होते हैं- आंतरिक और बाह्य । राग और द्वेष- ये दो आंतरिक निमित्त हैं। जीव के असंख्य प्रदेश (अविभागी अवयव) होते हैं । वे सब चैतन्य स्वरूप हैं । वे चैतन्यमय होने के कारण प्रभास्वर और निर्मल होते हैं । राग और द्वेष जीव के प्रत्येक प्रदेश के साथ मिश्रित हैं | स्वभाव से प्रभास्वर और निर्मल चैतन्य उसके योग से आवृत और मलिन रहता है । इस योग ( चैतन्य और राग-द्वेष) का आदि - बिंदु ज्ञात नहीं है, इसलिए यह संबंध अनादि माना जाता है। शरीरधारी जीव की परिणाम-धारा राग-द्वेष से युक्त होती है। राग-द्वेषयुक्त परिणाम नये-नये पुदगल - परमाणुओं को आकर्षित करता रहता है । जीव की परिणाम-धारा कर्म-परमाणुओं के आकर्षण का हेतु बनती है । इसलिए उसे आस्रव कहा जाता है । कर्म-परमाणुओं को आकर्षित करने की क्रिया को भी आस्रव कहा जाता है । पुदगल-परमाणुओं का आकर्षण काययोग ( शारीरिक प्रवृत्ति) से I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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