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साधना की पृष्ठभूमि .. १७ बद्ध-आत्मा को कर्म प्रभावित करते हैं। उनके द्वारा जीव के अध्यवसाय बाह्याभिमुख होते हैं । संचित संस्कार उस कार्य में सहयोगी बनते हैं। बुद्धिचक्र बाह्याभिमुख भावनाओं को अपनी रश्मियों द्वारा आकर्षित करता है। अपने आवरण विलय (क्षायोपशमिक भाव) की योग्यता के अनुसार वह उस विषय पर ऊहापोह करता है, हेय और उपादेय की दृष्टि से मीमांसा करता है और अपना निर्णय प्रस्तुत करता है । मन बुद्धि का ही एक केन्द्रीय विभाग है। अतः वह चंचल हो उठता है और आज्ञाकारी अनुचर की भांति बुद्धि के निर्णय को स्वीकार करता है | वह इन्द्रियों का स्वामी है, इसलिए स्वीकृत निर्णय को ज्ञानेन्द्रियों और कमेन्द्रियों तक पहुँचाकर उन्हें सहज क्रिया करने का निर्देश देता है । ज्ञानेन्द्रियां अपनी क्रियाओं को स्वाभाविक रूप से संपादित करती है । उससे पूर्वार्जित संस्कार समाप्त हो जाते हैं । उससे वृत्ति की नई गांठ नहीं घुलती।
मोह-मूढ़ आत्मा विषयाभिमुखता के कारण नए-नए संस्कार उत्पन्न करती रहती है । उससे क्रिया और प्रतिक्रिया का चक्र चलता रहता है।
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