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१६ जैन योग
व्यवहार की भूमिका से ऊपर उठकर वास्तविकता की खोज करता है । वास्तविकता यह है कि चेतन और देह दो हैं । साधना का प्रारंभ इसी बिंदु से होता है । जीव और देह की एकता का बोध जैसे बंधन का मूल है वैसे ही उनकी भिन्नता का बोध मुक्ति का मूल है । जैसे-जैसे यह भेदज्ञान दृढ़ होता जाता है, वैसे-वैसे ही राग-द्वेष क्षीण होते जाते हैं । उनकी क्षीणता का अर्थ है - कार्मण शरीर की क्षीणता और कार्मण शरीर की क्षीणता का अर्थ है - जीव के स्वाभाविक स्वरूप का प्रादुर्भाव ।
जीव और देह का भेद - ज्ञान होने पर भी वृत्तियों को प्रशान्त किए बिना भेद - ज्ञान दृढ नहीं होता । जीव की प्रवृत्ति के दो परिणाम होते हैं-कर्मबन्ध और संज्ञा - संरचना (वृत्ति या संस्कार - निर्माण) प्रवृत्ति के माध्यम से कर्मपरमाणु जीव के साथ संबंध स्थापित कर लेते हैं, उसका नाम कर्मबन्ध है । प्रवृत्ति के साथ जो स्मृति का अनुबंध हो जाता है, वह संज्ञा या वृत्ति है । बन्ध और संवर ये दोनों मन को चंचल बनाते हैं और चंचलता की स्थिति में चैतन्य की शक्तियां विकसित नहीं होती ।
आत्मा का स्वरूप
आत्मा की व्याख्या विधि और निषेध- दोनों प्रकारों से की गई है। वह शब्द नहीं है, रूप नहीं है, गंध नहीं है, रस नहीं हैं और स्पर्श नहीं है । फलतः वह अमूर्त है, अदृश्य है । वह चेतन सत्ता है । वह अपद है - शब्दातीत है । वह तर्कातीत है । वह बुद्धि से परे है ।
आत्मा और देह का संबंध
आत्मा सूक्ष्म है और देह स्थूल है । प्राणी सूक्ष्म और स्थूल का यौगिक (मिश्रित) रूप है । इसकी गति सूक्ष्म और स्थूलता की ओर होती है ।
आंख
आत्मा - भावमन - द्रव्यमन-मस्तिष्क
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कान
नाक - बाह्य जगत्
जीभ
स्पर्श
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