________________
साधना की पृष्ठभूमि १५
१. वह चिन्मय है । २. वह आनन्दमय है ।
३. वह शक्तिमय है ।
पुद्गल स्थूल शरीर के माध्यम से जीव को सहयोग देता है | वहां सूक्ष्म शरीर के माध्यम से वह जीव के अस्तित्व को आवृत, विकृत और प्रतिहत करता है । जीव का अनंतरित संबंध कार्मण शरीर से है । यह सूक्ष्म शरीर है । यह जीव को चार रूपों में प्रभावित करता है ।
जीव में सूर्य की भांति अखण्ड चैतन्य है, किंतु कार्मण शरीर के परमाणुस्कंध उसे आवृत करते हैं । इस आवरण के कारण जीव का प्रत्यक्ष ज्ञान नष्ट हो जाता है और परोक्ष ज्ञान भी अनेक स्तरों में बंट जाता है ।
जीव का आनंद सहज ( पदार्थ - निरपेक्ष) है, किंतु कार्मण शरीर उसे प्रभावित करता है, फलस्वरूप उसका मौलिक रूप विकृत हो जाता है और वह पदार्थ - सापेक्ष सुखानुभूति के रूप में शेष रहता है ।
कार्मण शरीर जीव की नैसर्गिक शक्ति को प्रतिहत करता है । फलस्वरूप जीव स्थूल शरीर के माध्यम से प्राप्त होने वाली शक्ति पर निर्भर रह जाता है ।
इस प्रकार कार्मण शरीर से प्रभावित जीव चैतन्य, आनंद और शक्ति के मौलिक और असीम गुण से वंचित रहकर केवल परमाणु-स्कंध के माध्यम से प्राप्त होने वाले ज्ञान, सुख -सामर्थ्य पर अपना काम चलाता है ।
सूक्ष्म शरीर के सहारे स्थूल शरीर बनता है । उसमें इन्द्रिय और मन की क्षमता निष्पन्न होती है । इन्द्रिय और मन के सहारे जीव बाह्य जगत् के साथ सम्पर्क स्थापित करता है- बाह्य विषयों को ग्रहण करता है । उनके प्रति राग और द्वेष उत्पन्न होता है और वे परमाणु स्कंधों का आकर्षण करते हैं। उनसे कार्मण शरीर पुष्ट बनता है । इस प्रकार उक्त प्रक्रिया पुनरावृत्त होती रहती है । इस पुनरावृत्ति का मूल जीव और देह का संयोग है ।
जीवन में जो घटित होता है, वह किसी एक ही कारण से नहीं होता । उसके पीछे कारण की सामग्री रहती है । उसमें एक कारण काल है | कालमर्यादा का परिपाक होने पर जीव में सत्य की जिज्ञासा जागृत होती है । वह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org