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अहं का विसर्जन
व्याकरणशास्त्र के
१. प्रथम पुरुष - वह
२. मध्यम पुरुष - तू ३. उत्तम पुरुष - मैं
यह पुरुष- भेद, 'स्व' और 'पर' की भावना इस शरीर से उत्पन्न हुई है । मेरा अस्तित्व इस शरीर से भिन्न नहीं है, इसलिए इस शरीर की सीमा तक मैं हूँ, इससे परे मैं नहीं हूं । इससे परे जो है वह 'पर' है- मुझसे भिन्न है । मैं वह नहीं और वह मैं नहीं हूँ । इस प्रकार 'मैं' और 'वह' के बीच मनुष्य ने एक रेखा खींच रखी है । वही 'स्व' और 'पर' की सीमारेखा है ।
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मनुष्य की समग्र प्रवृत्ति और अभिव्यक्ति का केन्द्र शरीर है । इसके विषय में दो प्रकार के लोगों ने दो प्रकार से सोचा है । कुछ लोगों ने सोचा कि शरीर से भिन्न मनुष्य का कोई अस्तित्व नहीं है और कुछ लोगों ने सोचा कि जैसे एक व्यक्ति का शरीर दूसरे व्यक्ति से भिन्न है वैसे ही मनुष्य की प्रवृत्ति का केन्द्रभूत शरीर भी उससे भिन्न है। प्रथम विचार के अनुसार चैतन्य शरीर का एक ही धर्म है और दूसरी विचारधारा के अनुसार शरीर और चैतन्य दो हैं ।
अनुसार तीन पुरुष
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होते हैं :
यहां मुझे इस विषय का समर्थन या निरसन नहीं करना है कि शरीर और चैतन्य अभिन्न हैं या वे भिन्न हैं । मैं केवल इतना ही बताना चाहता
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