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साधना की पृष्ठभूमि
१३ हूँ कि अध्यात्म-साधना का सारा विकास 'शरीर और चैतन्य भिन्न है' इसी विचारधारा के आधार पर हुआ है। साधना के क्षेत्र में यह स्वर बहुत प्रखर रहा कि ‘मैं दो हूँ’ यह मानना अविद्या है । 'मैं देह नहीं हूँ किंतु चिन्मय आत्मा हूँ'–यह अनुभव करना विद्या है
देहोऽहमिति या बुद्धि:, अविद्येति प्रकीर्तिता । नाहं देहश्चिदात्मेति, बुद्धिर्विद्येति भण्यते ॥ जो मनुष्य शरीर और चैतन्य को एक मानता है वह बहिरात्मा है । जो मनुष्य शरीर और चैतन्य की भिन्नता का अनुभव करता है, वह अंतरात्मा है । जो मनुष्य सम्यक् दर्शन व सम्यक् चरित्र के द्वारा आत्मा के आवृत रूप को प्रकट करता है, वह परमात्मा है ।
मनुष्य जो भी प्रयत्न करता है, वह दुःखमुक्ति और सुखप्राप्ति के लिए करता है | आनंद आत्मा का सहज धर्म है । वह हर मनुष्य के अंतस्तल में विद्यमान है । कितु मन जब बाह्य विचारों से भरा रहता है तब अंतस्तल में छिपे हुए आनंद का अनुभव करने के लिए उसमें अवकाश नहीं होता । मन जब चंचल रहता है, तब वह अंतस्तल में छिपे हुए आनंद का स्पर्श नहीं कर पाता । उसका अनुभव करने के लिए यह आवश्यक है कि मन खाली हो । मन का खाली होना ही अस्तित्व का बोध है । मन का खाली होना ही अहं का विसर्जन है ।
जब मन बाह्य विचारों से शून्य होता है तब उस शून्यता को चैतन्य की अनुभूति भर देती है । जब मन चैतन्य की अनुभूति से शून्य होता है तब उस शून्यता को बाह्य विचार भर देते हैं ।
ममकार और अहंकार
ममकार और अहंकार के निदान की मीमांसा अनेक तत्त्वविदों ने की | तत्त्वविद् जिस भूमिका का होता है, उसी भूमिका के संदर्भ में वह सोचता है | अध्यात्म के तत्त्वविदों ने दुःख का निदान देह और चैतन्य में एकता का आरोप माना है ।
यह शरीर मोह-व्यूह का सबसे मुख्य आधार है । ममकार और अहंकार मोह के पुत्र हैं । इनकी उत्पत्ति शरीर के माध्यम से ही होती है । अनात्मीय
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