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२०० - जैन योग
इंदियाणि कसाए य, गारवे य किसे कुरू ।
णो वयं ते पसंसामो, किसं साहू सरीरगं ।। भगवान् महावीर ने कर्म-शरीर को कृश करने की बात कही है । स्थूल शरीर कृश हो या न हो, यह गौण बात है ।
. जे इमस्स विग्गहस्स अयं खणेत्ति मन्नेसी । (५/२१)
'इस स्थूल शरीर का यह वर्तमान क्षण है' इस प्रकार जो वर्तमान क्षण का अन्वेषण करता है, वह सदा अप्रमत्त होता है।
महावीर की साधना का मौलिक स्वरूप अप्रमाद है । अप्रमत्त रहने के लिए जो उपाय बतलाए गए हैं, उनमें शरीर की क्रिया और संवेदना-ये दो मुख्य उपाय हैं । जो साधक वर्तमान क्षण में शरीर में घटित होने वाली सुखदुःख की वेदना को देखता है, वर्तमान क्षण का अन्वेषण करता है, वह अप्रमत्त हो जाता है।
यह शरीर-दर्शन की प्रक्रिया अन्तर्मुख होने की प्रक्रिया है । सामान्यतः बाहर की ओर प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा को अन्त्र की ओर प्रवाहित करने का प्रथम साधन स्थूल शरीर है । इस स्थूल शरीर के भीतर तैजस और कर्म-ये दो सूक्ष्म शरीर हैं । उनके भीतर आत्मा है । स्थूल शरीर की क्रियाओं
और संवेदनों को देखने का अभ्यास करने वाला क्रमशः तैजस् और कर्मशरीर को देखने लग जाता है । शरीर-दर्शन का दृढ़ अभ्यास और मन के सुशिक्षित होने पर शरीर में प्रवाहित होने वाली चैतन्य की धारा का साक्षात्कार होने लग जाता है । जैसे-जैसे साधक स्थूल से सूक्ष्म दर्शन करने की ओर आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे उसका अप्रमाद बढ़ता है । . जे अणण्णदंसी, से अणण्णारामे,
जे अणण्णारामे, से अणण्णदंसी । (२/१७३) जो अनन्य को देखता है, वह अनन्य में रमण करता है । जो अनन्य में रमण करता है, वह अनन्य को देखता है।
भगवान् महावीर की साधना का मौलिक आधार है अप्रमाद-निरंतर जागरूक रहना । अप्रमाद का पहला सूत्र है-आत्म-दर्शन । भगवान् ने
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