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प्रयोग और परिणाम २०१
कहा - आत्मा से आत्मा को देखो - 'संपिक्खए अप्पगमप्पएणं ।'
अनन्य-दर्शन का अर्थ आत्म-दर्शन है । जो आत्मा को देखता है, वह आत्मा में रमण करता है और जो आत्मा में रमण करता है, वह आत्मा को देखता है । दर्शन के बाद रमण और रमण के बाद फिर स्पष्ट दर्शन - यह क्रम चलता रहता है । वासना और कषाय (क्रोध, अभिमान, माया, लोभ) ये आत्मा से अन्य हैं। आत्मा को देखने वाला अन्य में रमण नहीं करता । आत्मा को जानना ही सम्यग्ज्ञान है । आत्मा को देखना ही सम्यग्दर्शन है । आत्मा में रमण करना ही सम्यग्चारित्र है । यही मुक्ति का मार्ग है । अप्रमाद का दूसरा सूत्र है वर्तमान में जीना - क्रियमाण क्रिया से अभिन्न होकर जीना । वर्तमान क्रिया में तन्मय होने वाला अन्य क्रिया को नहीं देखता । जो अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना में खोया रहता है, वह वर्तमान में नहीं रह सकता ।
जो व्यक्ति एक क्रिया करता है और उसका मन दूसरी क्रिया में दौड़ता है, तब वह वर्तमान के प्रति जागरूक नहीं रह पाता । जागरूक भाव और तादात्म्य में ही आत्मदर्शन घटित होता है ।
आयतचक्खू लोग-विपस्सी लोगस्स अहो भागं जाणइ, उड्ढ भागं जाणइ, तिरियं भागं जाणइ । (२ / १२५ )
दीर्घदर्शी पुरुष लोकदर्शी होता है । वह लोक के अधोभाग को जानता है, ऊर्ध्वभाग को जानता है और तिरछे भाग को जानता है ।
चित्त को काम-वासना से मुक्त करने का पहला आलंबन है - लोक
दर्शन ।
लोक का अर्थ है - भोग्य वस्तु या विषय। शरीर भोग्य वस्तु है । उसके तीन भाग हैं
१. अधोभाग - नाभि से नीचे,
२. ऊर्ध्वभाग - नाभि से ऊपर,
३. तिर्यग्भाग - नाभि-स्थान । प्रकारान्तर से उसके तीन भाग ये हैं
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