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प्रयोग और परिणाम
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इस संसार में अनर्थ ही सार वस्तु है । कौन, किसका, कहां अपना है और कौन, किसका, कहां पराया है । ये स्वजन और परजन सारे भ्रमण कर रहे हैं । ये किसी समय स्वजन और परिजन हो जाते हैं । एक समय ऐसा आता है, जब न कोई स्वजन रहता है और न परिजन -
संसार एवायमनर्थसारः कः कस्य कोऽत्र स्वजनः परो वा । सर्वे भ्रमन्तः स्वजनाः परे च भवन्ति भूत्वा न भवन्ति भूयः ॥
आप यह चितन करें - मैं अकेला हूं, पहले भी मेरा कोई नहीं है और पीछे भी मेरा कोई नहीं है । अपने कर्मों के द्वारा मुझे दूसरों को अपना मानने की भ्रांति हो रही है । सचाई यह है कि पहले भी मैं अकेला हूं और पीछे भी मैं अकेला ही हूं
विचिन्त्यमेतद् भवताऽहमेको, न मेऽस्ति कश्चित् पुरतो न पश्चात् । स्वकर्मभिर्भ्रान्तिरियं ममैव, अहं पुरस्तादहमेव पश्चात् ॥
जहा जुणाई कट्ठाई, हव्ववाहो पमत्थति, एवं अत्तसयाहिए अणि । (४/३३) जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला देती है वैसे ही समाहित आत्मा वाला तथा अनासक्त पुरुष कर्म-शरीर को प्रकंपित, कृश और जीर्ण कर देता है ।
इस पद में कर्म-शरीर को प्रकंपित करने के दो साधन निर्दिष्ट हैं-समाधि (आत्मा में एकाग्रता) और अनासक्ति । इन साधनों के निर्देश से भी यह स्पष्ट होता है कि इस प्रकरण में शरीर से तात्पर्य 'कर्म - शरीर' है ।
इस औदारिक (स्थूल) शरीर की कृशता यहां विवक्षित नहीं है । एक साधु ने उपवास के द्वारा शरीर को कृश कर लिया । उसका अहं कृश नहीं हुआ था । वह स्थान-स्थान पर अपनी तपस्या का प्रदर्शन करता और प्रशंसा चाहता था । एक अनुभवी साधु ने उसकी भावना को समझते हुए कहा - 'हे साधु ! तुम इन्द्रियों, कशायों और गौरव (अहंभाव ) को कृश करो। इस शरीर को कृश कर लिया, तो क्या हुआ ? हम तुम्हारे इस कृश शरीर की प्रशंसा नहीं करेंगे'
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