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________________ १९४जैन योग समत्व की प्रज्ञा से राग-द्वेष की श्रेणी को छिन्न कर डालो । समयं तत्थुवेहाए, अप्पाण विप्पसायए । (३ / ५५ ) व्यक्ति अपने जीवन में समता का आचरण कर आत्मा को प्रसन्न करे । दूसरों के प्रत्यक्ष में पाप कर्म न करना, वैसे ही परोक्ष में न करना समता है । जो साधक प्रत्यक्ष और परोक्ष में समान आचरण करता है उसी का चित्त प्रसन्न (निर्मल) रह सकता है । छिप-छिप कर पाप करने वाले का चित्त निर्मल नहीं रह सकता । वह मलिन हो जाता है । अंतरं च खलु इमं सपेहाए-धीरे मुहुत्तमवि णी पमायए । (२/११) इस प्राप्त अवसर की समीक्षा कर धीर पुरुष मुहूर्त्तभर भी प्रमाद न करे । स्वप्न और जागरण सापेक्ष हैं । मनुष्य बाहर में जागता है, तब भीतर में सोता है । वह भीतर से जागता है, तब बाहर में सोता है। बाहर में जागने वाला चैतन्य को विस्मृत कर देता है, इसलिए वह प्रमत्त हो जाता है । प्रमाद का अर्थ है-विस्मृति । भीतर में जागने वाले को चैतन्य की स्मृति रहती है, इसलिए वह अप्रमत्त रहता है । अप्रमाद का अर्थ है - स्मृति । स्मृति जागरूकता है और विस्मृति स्वप्न है । जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वा णं एगया णियता तं पुरिसं पोसेंति, सो वा ते नियगे पच्छा पोसेज्जा । (२ / १६) पुरुष जिनके साथ रहता है, वे आत्मीय जन कभी उसके पोषण की पहल करते हैं । बाद में वह भी उनका पोषण करता है । संतिं मरणं संपेहाए, भेउरधम्मं संपेहाए । ( २/५६) अप्रमाद शांति है और प्रमाद मृत्यु - यह देखने वाला प्रमाद कैसे कर सकता है ? जागरवेरोवर वीरे | (३/८) जागृत और वैर से उपरत व्यक्ति वीर होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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