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________________ १९२ जैन योग सब प्रकार से, सम्पूर्ण रूप से निरीक्षण कर सत्य का ही अनुशीलन करना चाहिए | इहारामं परिण्णाय, अल्लीणगुत्ते परिव्वए । णिट्ठियट्ठी वीरे, आगमेण सदा परिक्कमेज्जासि ।। ( ५ / ११७) इस सत्य के अनुशीलन में आत्म-रमण की परिज्ञा कर, आत्मलीन और जितेन्द्रिय होकर परिव्रजन करें । कृतार्थ और वीर पुरुष सदा आगम-निर्दिष्ट अर्थ के अनुसार पराक्रम करे । • पुरिसा ! सच्चमेव समभिजाणाहि । (३/६५) पुरुष ! तू सत्य का ही अनुशीलन कर । सच्चस्स आणाए उवट्ठिए से मेहावी मारं तरति । (३ / ६६) जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित है वह मेधावी मृत्यु को तर जाता है । सहिए धम्ममादाय सेयं समणुपस्सति । (३ / ६७) सत्य का साधक धर्म को स्वीकार कर श्रेय का साक्षात् कर लेता है । २. मूढ़ता भोगामेव अणुसोयंति । (२/७९) मूढ़ व्यक्ति भोग के विषय में ही सोचते रहते हैं । सततं मूढ़े धम्मं णाभिजाणइ (२/९३) सतत मूढ़ मनुष्य धर्म को नहीं जान पाता । अणोहंतरा एते, नो य ओहं तरित्तए । अतीरंगमा एते, नो य तीरं गमित्तए । अपारंगमा एते, नो य पारं गमित्तए । (२ / ७१) मूढ़ मनुष्य अनोघंतर हैं- संसार - प्रवाह को तैरने में समर्थ नहीं हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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