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१८० - जैन योग ५. अन्यत्व अनुप्रेक्षा
कामभोग मुझ से भिन्न हैं और मैं उनसे भिन्न हूं | पदार्थ मुझसे भिन्न हैं और मैं उनसे भिन्न हूं। ६. अशौच अनुप्रेक्षा
यह शरीर अपवित्र है । इससे निरंतर विकारों का स्त्राव होता रहता है। अनुप्रेक्षा की कुछ दिशाएं निर्दिष्ट की गई हैं । इनके अनुसार अन्य अनेक अनुप्रेक्षाओं का प्रयोग किया जा सकता है। जैसे शरीर पर प्रतिदिन मैल जमता है, वैसे ही मन पर भी कषाय का मैल जमता रहता है, मूर्छा सघन होती रहती है । उस मैल को धोने और मूर्छा की सघनता को नष्ट करने के लिए अनुप्रेक्षा का प्रयोग बहुत महत्त्वपूर्ण है । वह प्रतिदिन कमसे-कम एक घंटे का होना चाहिए और तीन या छह मास तक निरंतर चलना चाहिए। भावना : अभ्यास-क्रम
कायोत्सर्ग करें। पांच-दस दीर्घ श्वास लें । जिस चिंतन से मन को भावित करना चाहते हैं, मन में जो संस्कार निर्मित करना चाहते हैं उसे दोहराना शुरू करें । उसमें तन्मय हो जाएं । उस आलंबन के सिवाय दूसरा कोई विकल्प मन में न लाएं | भाव्य विषय के साथ तादात्म्य स्थापित करें। .
जप की भावना का एक प्रकार है । किसी मंत्र-जप का अभ्यास भी भावना की विधि से किया जा सकता है | भावना की पुष्टि के लिए एक विषय की भावना का प्रतिदिन कम-से-कम एक घंटा और पूर्ण सफलता के लिए तीन घंटे का अभ्यास करना चाहिए और यह अभ्यास-क्रम तीन या छह मास की अवधि तक निरंतर चलना चाहिए ।
भावना-प्रयोग गुण-संक्रमण का सिद्धांत है । हम जिसकी भावना करते हैं उसका गुण हमारी आत्मा में परिणत हो जाता है । भावक्रिया : अभ्यास-क्रम
अपनी दैनिक प्रवृत्तियों में भावक्रिया का अभ्यास करें-वर्तमान क्रिया
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