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पद्धति और उपलब्धि १६५
की पुष्टि होती है । क्रोध जब शांत या क्षीण नहीं है तब शक्ति प्राप्त होगी तो उसका दुष्परिणाम कैसे नहीं होगा ? जिसकी वासना शांत नहीं है वह शक्ति को उपलब्ध होकर आनाचार में प्रवृत्त कैसे नहीं होगा ? ऐसे साधक भी मिलेंगे जो हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से विरत नहीं है और ऋद्धि को उपलब्ध हैं। इसका फलित यह है कि वह ऋद्धि आध्यात्मिक नहीं है और वह आध्यात्मिक नहीं है इसीलिए जिसमें अहिंसा आदि सदाचार का बीज उप्त नहीं है उसे भी वह उपलब्ध हो जाती है । असंयमी को ऋद्धि उपलब्ध होती है और वह उसका दुरुपयोग करता है । भगवान् महावीर ने संयम को प्रथम स्थान दिया और ध्यान को दूसरा । जो साधक संयम के द्वारा 1 नये कर्मों का संवर नहीं करता, जिसके चित्त में प्राणिमात्र के प्रति मैत्री की भावना अंकुरित नहीं होती, जो सत्य के प्रति समर्पित नहीं होता, जिसका चित्त अनासक्त नहीं होता, उसमें वीतरागभाव का विकास नहीं हो सकता । जिसमें वीतराग-भाव का विकास नहीं होता, उसे आत्मा उपलब्ध नहीं होता । आत्मा की उपलब्धि के लिए वीतराग भाव जरूरी है । वीतराग भाव की सिद्धि के लिए समभाव की साधना जरूरी है । समभाव की सिद्धि के लिए संयम जरूरी है। संयम का अर्थ है- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की साधना । संयम की सिद्धि के लिए भी मानसिक, वाचिक और कायिक-तीनों प्रकार का ध्यान आवश्यक है। इसीलिए मनोगुप्ति, वचनगुप्ति 'और कायगुप्ति - इन तीनों गुप्तियों या त्रिविध ध्यान का अभ्यास संयम के साथ शृंखलित है। गुप्ति की साधना के बिना संयम की साधना नहीं हो सकती, किंतु ऋद्धि की दिशा में प्रवाहित होने वाली ध्यान की धारा साधक को तब तक उपलब्ध नहीं करानी चाहिए जब तक उसका संयम सिद्ध न हो जाये । व्यवहार सूत्र का एक विधान है कि जो मुनि चौदह वर्षों तक संयम की साधना कर चुका वह 'स्वप्नभावना' को पढ़ सकता है। पंद्रह वर्ष के बाद 'चारण भावना', सोलह वर्ष के बाद 'तेजोनिसर्ग', सतरह वर्ष के बाद 'आशीविष भावना' और अठारह वर्ष के बाद 'दृष्टिविष भावना' का अध्ययन कर सकता है। इन ग्रंथों में विशिष्ट ऋद्धियों की साधना-पद्धति प्रतिपादित थी । जिसका संयम सिद्ध नहीं होता वह इनका अध्ययन कर ऋद्धियों का दुरुपयोग कर
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