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१६६ - जैन योग सकता था, इसलिए उक्त विधान किया गया ।
मोक्ष के लिए ऋद्धि की प्राप्ति की अनिवार्यता नहीं है | जो साधक वीतराग हो जाते हैं, वे कैवल्य को प्राप्त कर मुक्त हो जाते हैं। उन्हें तेजोलब्धि आदि ऋद्धियां उपलब्ध हों या न हों। ऋद्धियों को प्राप्त साधक भी मुक्त हो सकते हैं, 'यदि वे उनका प्रयोग न करें, उनके ध्यान की धारा वीतरागता की दिशा में ही प्रवाहित रहे । ऋद्धि है चमत्कार
अध्यात्म के क्षेत्र में जो मूल्य वीतरागता का है वह ऋद्धि का नहीं है। सामान्य मनुष्य ऋद्धि को ही साधना की उपलब्धि मानते हैं । वे साधक से पूछते हैं-'इतने वर्ष साधना की, आपको क्या उपलब्ध हुआ ?' साधक का यह उत्तर हो कि मुझे समभाव उपलब्ध हुआ तो वे सोचेंगे कि इसे कुछ भी उपलब्ध नहीं है | यदि कोई साधक कहे कि मुझे जल पर चलने या भूमि से ऊपर उठने की सिद्धि उपलब्ध हुई है तो वे उस साधक को बहुते सम्मान देंगे | जल पर चलने या भूमि से ऊपर उठने का स्वयं उसके लिए और दर्शकों के लिए कोई विशेष मूल्य नहीं है | केवल एक चमत्कार है । हर आदमी नहीं कर सकता और वह कर सकता है, इसलिए एक असाधारण कार्य है । सभी ऋद्धियां मूल्यहीन नहीं हैं । कुछ बहुत मूल्यवान हैं । उनका सही उपयोग किया जाए तो वे साधक को अध्यात्म की दिशा में गतिशील करती हैं ।
समभाव का अर्थ है-मन की शांति, समता और संतुलन । उसका मूल्य ऋद्धि से बहुत अधिक है । जिसे वह उपलब्ध होता है उसका मन समस्याओं से मुक्त हो जाता है। कोई मनुष्य इस जगत् में जीये और उसका मन समस्याओं से मुक्त हो, यह कितनी बड़ी उपलब्धि है ! यह उस व्यक्ति को भी प्राप्त नहीं होती, जो ऋद्धि को प्राप्त कर चुकता है । शासन-सत्ता और प्रचुर वैभव प्राप्त करने वाले व्यक्ति भी मन की समस्या से मुक्त नहीं होते । उस स्थिति में एक साधक मानसिक समस्या से मुक्त हो जाता है, क्या यह सबसे बड़ी उपलब्धि नहीं है ? फिर भी जिनकी दृष्टि आध्यात्मिक नहीं होती वे ऋद्धि को उपलब्धि मानते हैं, समभाव को उपलब्धि नहीं मानते ।
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