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१६४जैन योग
अधिक विकास करें, समभाव को बढ़ाएं और वीतरागता की दिशा में गतिशील बनें ।'
ध्यान से मनुष्य दो दिशाओं में गतिशील होता है । एक दिशा है वीतरागता की और दूसरी दिशा है ऋद्धियों की । वीतरागता आध्यात्मिक उपलब्धि है और ऋद्धि चैतन्य और पुद्गल के संयोग से होने वाली उपलब्धि है । वह ध्यान-साधना के प्रासंगिक फलस्वरूप में भी होती है और ध्यान, भावना आदि को विशेष दिशा में प्रवाहित करने पर भी होती है । वह पौद्गलिक इसलिए है कि वनौषधि से भी उपलब्ध होती है। सभी ऋद्धियां वनौषधि से प्राप्त नहीं होतीं, कुछेक होती हैं। फिर भी वनौषधि से वे प्राप्त होती हैं इसलिए वे पौद्गलिक हैं । वचन-सिद्धि ध्यान - भावना आदि से भी प्राप्त होती है और वनौषधि के प्रयोग से भी प्राप्त होती है। दूरदर्शन, पूर्वजन्म की स्मृति आदि ऋद्धियां वनौषधि से भी उपलब्ध होती हैं । इसलिए वे पौद्गलिक हैं । वे मंत्र - साधना के द्वारा भी प्राप्त होती हैं । ध्वनि के स्पंदन और उससे उत्पन्न होने वाली विद्युत् से शरीर और मन में अनेक परिवर्तन होते हैं । उनमें मंत्र, औषधि आदि ऋद्धियां उपलब्ध होती हैं । यह भी आध्यात्मिक या अपौद्गलिक प्रक्रिया नहीं है । केवलज्ञान किसी मंत्र, औषधि आदि साधन से उपलब्ध नहीं होता । वह केवल वीतरागता सिद्ध होने पर ही उपलब्ध होता है । इसलिए वह पूर्ण आध्यात्मिक है ।
संयम और लब्धि
कुछ आधुनिक साधकों का अभिमत है कि ध्यान-साधना के लिए संयम अनिवार्य नहीं है । वह ध्यान - साधना से स्वतः प्राप्त होता है । पहले संयम करें और फिर ध्यान अभ्यास - यह पौर्वापर्य अपेक्षित नहीं है । संयम ध्यान का कारण नहीं, उसका फलित है । यह विचार सर्वथा असंगत नहीं है । ध्यान से संयम फलित होता है, यह एक सचाई है। किंतु संयम की साधना के बिना, राग-द्वेष की धारा को संयत किए बिना, ध्यान की साधना की जाती है, उससे अनेक हानियां भी होती हैं। ध्यान से जो ऊर्जा प्राप्त होती है वह राग-द्वेष की धारा से जुड़कर अनेक अनाचरणीय कर्म में प्रवृत्त हो जाती है । तपस्वियों द्वारा अभिशाप और वरदान देने की घटनाओं से इस तथ्य
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