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पद्धति और उपलब्धि १६१
है । वही क्षेत्र अवधिज्ञान के प्रस्फुटित होने का माध्यम बनता है। तेजोलेश्या की विद्युतधारा से शक्ति संस्थान या चैतन्य- केन्द्र जागृत होते हैं, इसका तात्पर्य चुम्बकीय क्षेत्र के निर्माण से है, ज्ञान के अनावरण से नहीं ।
जैन योग में कुंडलिनी
योग की उपयोगिता जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे उस विषय में जिज्ञासाएं भी बढ़ती जा रही हैं। योग की चर्चा में कुंडलिनी का सर्वोपरि महत्त्व है । बहुत लोग पूछते हैं कि जैन योग में कुंडलिनी सम्मत है या नहीं ? यदि वह एक वास्तविकता है तो फिर कोई भी योग-परंपरा उसे अस्वीकृत कैसे कर सकती है ? वह कोई सैद्धान्तिक मान्यता नहीं है, किंतु एक यथार्थ शक्ति है । उसे अस्वीकृत करने का प्रश्न ही नहीं हो सकता ।
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जैन परम्परा के प्राचीन साहित्व में कुंडलिनी का प्रयोग नहीं मिलता । उत्तरवर्ती साहित्य में इसका प्रयोग मिलता है । वह तंत्रशास्त्र और हठयोग का प्रभाव है | आगम और उसके व्याख्या साहित्य में कुंडलिनी का नाम तेजोलेश्या है । इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि हठयोग में कुंडलिनी का जो वर्णन है उसकी तुलना तेजोलेश्या से की जा सकती है | अग्नि-ज्वाला के समान लाल वर्ण वाले पद्गलों के योग से होने वाली चैतन्य की परिणाति का नाम तेजोलेश्या है | यह तप की विभूति से होने वाली तेजस्विता है ।
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