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१६० - जैन योग तेजोलेश्या के दो रूप
हम चैतन्य और परमाणु पुद्गल-दोनों को साथ-साथ जी रहे हैं । हमारा जगत् न केवल चैतन्य का जगत् है और न केवल परमाणु-पुद्गल का | यह दोनों के संयोग का जगत् है । चैतन्य की शक्ति से परमाणु-पुद्गल सक्रिय होते हैं और परमाणु-पुद्गलों की सक्रियता से चैतन्य की उनके अनुरूप परिणति होती है । इस नियम के आधार पर तेजोलेश्या के दो रूप बनते हैं-भावात्मक और पुद्गलात्मक । भावात्मक तेजोलेश्या चित्त की विशिष्ट परिणति या चित्तशक्ति है । इस तेजोलेश्या वाले व्यक्ति का चित्त नम्र, अचपल
और ऋजु हो जाता है । उसके मन में कोई कुतूहल नहीं होता। उसकी इन्द्रियां सहज शांत हो जाती हैं । वह योगी (समाधि-संपन्न) और तपस्वी होता है | उसे धर्म प्रिय होता है । वह धर्म का कभी अतिक्रमण नहीं करता |
पुद्गलात्मक तेजोलेश्या के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श विशिष्ट प्रकार के होते हैं । उसका वर्ण हिंगुल, बाल सूर्य या प्रदीप की शिखा के समान लाल होता है । उसका रस पके हुए आम्रफल के रस से अत्यधिक मधुर होता है । उसका गंध सुरभि कुसुम से अत्यधिक सुखद होता है । उसका स्पर्श नवनीत या शिरीष कुसुम से भी अधिक मृदु होता है । तेजोलेश्या और अतीन्द्रिय ज्ञान
तेजोलेश्या और अतीन्द्रिय ज्ञान का परस्पर संबंध है | अतीन्द्रिय ज्ञान का विकास ज्ञानावरण के विलय से होता है । वह तेजोलेश्या से नहीं होता । उसकी अभिव्यक्ति तेजोलेश्या से होती है । तेजस्, पद्म और शुक्ल लेश्या की विचारधारा होती है, अध्यावसाय शुद्ध होता है तब ज्ञान का आवरण क्षीण हो जाता है और अतीन्द्रिय ज्ञान की शक्ति उपलब्ध हो जाती है । किंतु उसका उपयोग चैतन्य केन्द्र और शक्ति-संस्थानों के माध्यम से होता है । कोई अवधिज्ञानी अपने ज्ञान का प्रयोग शरीर के किसी एक भाग से या समूचे शरीर से-दोनों प्रकार से करता है । तेजोलेश्या की विद्युत्धारा जिस शक्तिसंस्थान या चैतन्य केन्द्र पर पड़ती है, वह उपलब्ध क्षमताओं की अभिव्यक्ति का माध्यम बन जाता है । विद्युत् जिस प्रकार अपना चुम्बकीय क्षेत्र (Magnetic field)बनाती है, वैसे ही तेजोलेश्या एक चुम्बकीय स्थान का निर्माण करती
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