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पद्धति और उपलब्धि 0 १५९
जानकारी लिखित रूप कहीं भी उपलब्ध नहीं होती । यह जानकारी मौलिक रूप में आचार्य शिष्य को स्वयं देते थे ।
गोशालक ने महावीर से पूछा-'भंते ! तेजोलेश्या का विकास कैसे हो सकता है ?' महावीर ने इसके उत्तर में उसे तेजोलेश्या के एक विकास-स्रोत का ज्ञान कराया । उन्होंने कहा-'जो साधक निरंतर दो-दो उपवास करता है, पारणा के दिन मुट्ठीभर उड़द या मूंग खाता है और एक चुल्लू पानी पीता है, भुजाओं को ऊंची कर सूर्य की आतापना लेता है, वह छह महीनों के भीतर ही तेजोलेश्या को विकसित कर लेता है ।'
तेजोलेश्या के तीन विकास-स्रोत हैं१. आतापना-सूर्य के ताप को सहना । २. क्षांति-क्षमा-समर्थ होते हुए भी क्रोध-निग्रहपूर्वक व्यवहार को सहन
करना । ..
३. जल-रहित तपस्या करना ।
इनमें केवल ‘क्षांतिक्षमा' नया है । शेष दो उसी विधि के अंग हैं जो विधि महावीर ने गोशालक को सिखाई थी । तेजोलेश्या के निग्रह-अनुग्रह स्वरूप के विकास के स्रोतों की यह संक्षिप्त जानकारी है । उसका जो आनन्दात्मक स्वरूप है उसके विकास-स्रोत भावात्मक तेजोलेश्या की अवस्था में होने वाली चित्तवृत्तियां हैं । चित्तवृत्तियों की निर्मलता के बिना तेजोलेश्या के विकास का प्रयत्न खतरों को निमंत्रित करने का प्रयत्न है । वे खतरे शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक-तीनों प्रकार के हो सकते हैं ।
जो साधना के द्वारा तेजोलेश्या को प्राप्त कर लेता है वह सहज आनन्द की अनुभूति में चला जाता है । इस अवस्था में विषय-वासना और आकांक्षा की सहज निवृत्ति हो जाती है । इसीलिए इस अवस्था को 'सुखासिका' (सुख में रहना) कहा जाता है । विशिष्ट ध्यान-योग की साधना करने वाला एक वर्ष में इतनी तेजोलेश्या को उपलब्ध होता है कि उससे उत्कृष्टतम भौतिक सुखों की अनुभूति अतिक्रान्त हो जाती है । उस साधक को इतना सहज सुख प्राप्त होता है जो किसी भी भौतिक पदार्थ से प्राप्त नहीं हो सकता ।
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