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१५८जैन योग
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पृष्ठभाग में खाए हुए आहार का प्राण के रूप में परिवर्तन होता है । अतः शारीरिक दृष्टि से मस्तिष्क और नाभि का पृष्ठभाग- ये दोनों तेजोलेश्या के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन जाते हैं। यह तेजोलेश्या एक शक्ति है। इसे हम नहीं देख पाते ! इसके सहायक परमाणु- पुद्गल सूक्ष्मदृष्टि से देखे जा सकते हैं । ध्यान करने वालों को उनका यत्किंचित् आभास होता रहता है । तेजोलेश्या और प्राण
तेजोलेश्या प्राणधारा है । हमारे शरीर में अनेक प्राणधाराएं हैं। इन्द्रियों की अपनी प्राणधारा है। मन, शरीर और वाणी की अपनी प्राणधारा है । श्वास-प्रश्वास और जीवनी-शक्ति की भी स्वतंत्र प्राणधाराएं हैं। हमारे चैतन्य का तैजस शरीर के साथ योग होता है और प्राण शक्ति बन जाती है । सभी प्राणधाराओं का मूल तैजस शरीर है। इन प्राणधाराओं के आधार पर शरीर की क्रियाओं और विद्युत् आकर्षण के संबंध का अध्ययन किया जा सकता है ।
प्राण की सक्रियता से मनुष्य के मन में अनेक प्रकार की वृत्तियां उठती हैं और जब तक तेजोलेश्या से आनन्दात्मक स्वरूप का विकास नहीं होता तब तक वे उठती ही रहती हैं। कुछ लोग वायु-संयम से उन्हें रोकने का प्रयत्न करते हैं । यह उनके निरोध का एक उपाय अवश्य है, किंतु वायु- संयम (या कुंभक) एक कठिन साधना है । उसमें बहुत सावधानी बरतनी पड़ती है । कहीं थोड़ी-सी असावधानी हो जाती है अथवा योग्य गुरु का पथ- दर्शन नहीं मिलता है तो कठिनाइयां बढ़ जाती हैं । मनःसंयम से चित्तवृत्तियों का निरोध करना निर्विघ्न मार्ग है । इसकी साधना कठिन है, पर यह इसका सर्वोत्तम उपाय है । प्रेक्षाध्यान के द्वारा इसकी कठिनता को मिटाया जा सकता है । चित्त की प्रेक्षा चित्तवृत्तियों के निरोध का महत्त्वपूर्ण उपाय है ।
तेजोलेश्या के विकास स्रोत
तेजोलेश्या के विकास का कोई एक ही स्रोत नहीं है । उसका विकास अनेक स्रोतों से किया सकता है । संयम, ध्यान, वैराग्य, भक्ति, उपासना, तपस्या आदि-आदि उसके विकास के स्रोत हैं। इन विकास - स्रोतों की पूरी
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