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पद्धति और उपलब्धि - १५३ साधना से पूरा शरीर 'करण' नहीं बन जाता । उसके लिए बहुत बड़ा अभ्यास जरूरी होता है । इसकी अपेक्षा किसी एक चैतन्य केन्द्र की प्रेक्षा का अभ्यास कुछ सरल होता है । पूरे शरीर की प्रेक्षा का परिपाक होने पर पूरे शरीर से अतींद्रियज्ञान की प्रकाशरश्मियां बाहर फैलती हैं । चैतन्य केन्द्र की प्रेक्षा से जो चैतन्य केन्द्र जागृत होता है, उसी से अतींद्रियज्ञान की प्रकाश-रश्मियां बाहर पैलती हैं । अतींद्रियज्ञान की दोनों प्रकार की उपलब्धियां ध्यान के दो भिन्न-कोटिक अभ्यासों पर निर्भर हैं । जिस व्यक्ति की जैसी श्रद्धा, रुचि, शक्ति और धृति होती है वह उसी पद्धति का चुनाव कर लेता है-कोई संपूर्ण शरीर प्रेक्षा का और कई चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा का । प्रेक्षाध्यान की निष्पत्ति
प्रेक्षाध्यान से दो कार्य निष्पन्न होते हैं१. करण-निष्पत्ति । २. आवरण-विशुद्धि ।
जहां अवधान नियोजित होता है वह शरीर-भाग अवधिज्ञान के लिए 'करण' या माध्यम बन जाता है | प्रेक्षाध्यान का अवधान राग-द्वेष रहित, समभावपूर्ण होता है, उससे ज्ञान और दर्शन का आवरण विशुद्ध होता है । आवरण के विशुद्ध होने पर जानने की क्षमता बढ़ती है और शरीर-भाग के विशुद्ध होने पर उस विकसित ज्ञान को शरीर से बाहर फैलने का अवसर मिलता है । आवरण की विशुद्धि संपूर्ण चैतन्य में होती है, किंतु उसका प्रकाश शरीर-प्रदेशों को करण बनाए बिना बाहर नहीं जा सकता । विद्युत् प्रवाह होने पर भी यदि बल्ब न हो तो उसका प्रकाश नहीं होता । ठीक यही बात ज्ञान पर लागू होती है | आवरण की विशुद्धि होने पर चैतन्य का प्रवाह उपलब्ध हो जाता है, फिर भी शरीर प्रदेश की विशुद्धि हुए बिना वह बाह्य अर्थ को नहीं जान सकता, प्रकाशित नहीं कर सकता । इसलिए ज्ञान के क्षेत्र में आवरण-विशुद्धि और करण-विशुद्धि-ये दोनों आवश्यक होती हैं। केन्द्र और संवादी केन्द्र
चैतन्य-केन्द्र हमारे स्थूल में होते हैं । नाभि, हृदय, कंठ, नासाग्र, भृकुटि,
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