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________________ १५२ - जैन योग जैसे जालीदार ढक्कन में रखे हुए दीप का प्रकाश जाली में छनकर बाहर आता है, वैसे ही अवधिज्ञान की प्रकाश-रश्मियां इन चैतन्य केन्द्रों के माध्यम से बाहर आती हैं | आनुगामिक अवधिज्ञान के दो प्रकार होते हैं-अंतगत और मध्यगत । जैसे कोई मनुष्य टॉर्च को आगे की ओर करता है तब उसका प्रकाश आगे की ओर फैलता है । जब वह उसे पीछे की ओर करता है तब उसका प्रकाश पीछे की ओर फैलता है । जब वह उसे दाएं-बाएं करता है तब उसका प्रकाश दाएं-बाएं फैलता है । यह एक दिशा में फैलने वाला प्रकाश स्पष्ट होता है । अंतगत अवधिज्ञान भी ऐसा ही होता है । उसका प्रकाश आगे, पीछे या दाएं-बाएं फैलता है । वह जिस दिशा में फैलता है उस दिशा में स्पष्ट होता है। किन्तु उसका प्रकाश सब दिशाओं में नहीं फैलता । यह अवधिज्ञान संपूर्ण शरीर के माध्यम से नहीं होता किंतु जितने चैतन्य-केन्द्र विकसित होते हैं उतने चैतन्य केन्द्रों के माध्यम से होता है । एक मनुष्य में एक चैतन्य केन्द्र भी विकसित हो सकता है और अनेक चैतन्य केन्द्र भी विकसित हो सकते हैं । इनके विकास का हेतु ध्यान है । जिन चैतन्य केन्द्रों पर अवधान नियोजित किया जाता है वे विकसित हो जाते हैं । ध्यान की धारा आगेपीछे, दाएं-बाएं-जिस दिशा में प्रवाहित होती है उस दिशा के चैतन्य केन्द्र जागृत हो जाते हैं और वे चैतन्य रश्मियों के बहिर्निर्गमन के माध्यम बन जाते जैसे दीवट पर रखे हुए दीप का प्रकाश चारों दिशाओं में फैलता है वैसे ही मध्यगत अवधिज्ञान की प्रकाश-रश्मियां समूचे शरीर से बाहर आती प्रेक्षाध्यान की प्रक्रिया प्रेक्षाध्यान की दो पद्धतियां हैं१. संपूर्ण शरीर प्रेक्षा । २. चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा । संपूर्ण शरीर की प्रेक्षा करने से पूरा शरीर 'करण' बन जाता है, अतींद्रियज्ञान का साधन बन जाता है । इसमें दीर्घकाल, गहन अध्यवसाय, सघन श्रद्धा और धृति की अपेक्षा होती है । कुछ महीनों और वर्षों की प्रेक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002746
Book TitleJain Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year2000
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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