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पद्धति और उपलब्धि
१५१ आत्मा समूचे शरीर में व्याप्त है, फलतः शरीर की प्रत्येक कोशिका में चैतन्य व्याप्त है, प्रत्येक कोशिका में ज्ञान की क्षमता है | शरीरशास्त्र के अनुसार ज्ञान का स्रोत नाड़ी संस्थान है। मस्तिष्क और सुषुम्ना के द्वारा ही सब ज्ञान होता है । कर्म-शास्त्र की भाषा में नाड़ी - संस्थान को ज्ञान की अभिव्यक्ति का माध्यम कहा जा सकता है | शरीरशास्त्र के अनुसार शरीर के सारे कोष एक जैसे हैं। कुछ कोषों को विशेषज्ञता प्राप्त हो गई है, इसलिए वे ज्ञान के स्रोत बन गए हैं । यदि प्रशिक्षित किया जाए तो आंख की चमड़ी और हाथ की
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अंगुलियों से देखा जा सकता है। कान की हड्डियों की तुलना में दांत ध्वनि का अच्छा वाहक है | दांतों में एक यांत्रिक उपकरण फिट कर उससे कान का काम लिया जा सकता है। पांच इंद्रियों के ज्ञान - केन्द्र (या ज्ञान - स्रोत) बहुत स्पष्ट हैं । ध्यान-साधना के द्वारा 'संभिन्नस्रोतोलब्धि' का विकास होने पर समूचा शरीर ही इंद्रिय ज्ञान का केन्द्र ( या स्रोत) बन जाता है । संभिन्न स्रोतोलब्धि वाला सब अंगों से सुन सकता है, अथवा एक इंद्रिय से सब इंद्रियों के विषयों को जान सकता है, आंख से सुन सकता है और कान से देख सकता है ।
मानसिक ज्ञान का चैतन्य - केन्द्र मस्तिष्क है । मन की सरी वृत्तियां उसके विभिन्न कोष्ठों के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं । हम इंद्रिय और मन के ज्ञान से ही परिचित हैं और उनके चैतन्य - केन्द्र ही हमारी शरीर-संरचना में स्पष्ट हैं । इंद्रिय और मन ज्ञान की सीमा नहीं है । वे ज्ञान के आदि-बिंदु हैं । यदि कोई व्यक्ति अपने शरीरस्थ चैतन्य - केन्द्रों को विकसित कर सके तो वह इंद्रिय और मन से अतीत विषयों को जान सकता है । वे चैतन्यकेन्द्र ध्यान के द्वारा विकसित किए जा सकते हैं ।
अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति और अभिव्यक्ति
हठयोग और तंत्रशास्त्र में चैतन्य - केन्द्रों को चक्र कहा जाता है। जैन योग में चैतन्य- केन्द्रों के अनेक आकारों का उल्लेख मिलता है, जैसे- शंख, कमल, स्वस्तिक, श्रीवत्स नंद्यावर्त, ध्वज, कलश, हल आदि । ये नाना आकार वाले चैतन्य- केन्द्र इंद्रियातीत ज्ञान के माध्यम बनते हैं। इनके माध्यम से चैतन्य का प्रकाश बाहर फैलता है । अतीन्द्रियज्ञान का एक प्रकार है अवधिज्ञान ।
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