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पद्धति और उपलब्धि - १४७ मनोवैज्ञानिक ढंग से स्पर्श किया है। उनके अनुसार अनेक अशिक्षित लोगों के अणुओं में प्रकाश-रसायन प्राप्त हुए । साधारणतः लोग उन्हीं को सच्चरित्र
और धार्मिक मानते हैं जो ऊंचे घरानों में जन्म लेते हैं, गरीबों में धन आदि बांटते हैं तथा प्रातः-सायं उपासना आदि नित्य कर्म करते हैं । परन्तु उन्हें बहुत से ऐसे लोग मिले जो देखने पर बड़े धर्मात्मा तथा स्वच्छ वस्त्रधारी थे, परन्तु उनके अन्दर काले अणुओं का बाहुल्य था। इसके विपरीत कितने ही ऐसे अपढ़, गंवार तथा बाह्यरूप से भद्दे प्रतीत होने वाले लोग भी देखने को मिले, जिन्हें किसी भी प्रकार कुलीन नहीं कहा जा सकता । परन्तु उस समय आश्चर्य का कोई सीमा नहीं रही जब उनके प्रकाशाणुओं की थरथरियों को उनकी आभा में स्पष्ट रूप से देखा गया। आश्चर्य का कारण यह था कि प्रकाशाणुओं की विकास कई वर्ष के सतत परिश्रम और इन्द्रियों के अणुओं के नियंत्रण के पश्चात् हो पाता है, परन्तु इन लोगों ने अनजाने ही प्रकाशाणुओं को प्राप्त कर लिया था। उन्होंने कभी स्वप्न में भी प्रकाशाणुओं के विकास के विषय में न सोचा होगा।
ऋजुता, जितेन्द्रियता और मानसिक समाधि होती है तब कृष्ण, नील और कापोत-इन तीनों लेश्याओं की भावधारा बदल जाती है और उनसे प्रभावित चैतन्य केन्द्र भी जागृत हो जाते हैं। मनुष्य अप्रमाद के द्वारा ऋजुता
आदि की पवित्र भावना रखना चाहता है, फिर भी वृत्तियों का दबाव पड़ता है, अशुभ कर्म का विपाक होता है और वह अशुभ भावना से घिर जाता है । पूर्वार्जित वृत्तियों और कर्मों को विलीन करने के लिए रंगों का ध्यान भी उपयोगी बनता है। लेश्या और मानसिक चिकित्सा ____हम शुभ भावना करते हैं तब शुभ पुद्गलों का ग्रहण होता है और वे हमारे आभामंडल को निर्मल बनाते हैं । जैसे अनुकूल भोजन से शरीर पुष्ट होता है और प्रतिकूल भोजन से वह क्षीण होता है उसी प्रकार पवित्र भावना से शरीर और आभामंडल-दोनों स्वस्थ होते हैं । भय, शोक, ईर्ष्या आदि के द्वारा अनिष्ट पुद्गलों का ग्रहण होता है, उनसे शरीर और आभामंडल-दोनों
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